सेफ्टी पिन / वैशाली थापा
मैं उसे कचरे में नहीं फेंकती
उठा कर रख देती हूँ यहीं कहीं किसी जगह पर
जहाँ कीमती वस्तुएँ नहीं रखी जाती।
मैं जब बुहारती हूँ फर्श
मिल जाया करती है जहाँ-तहाँ
गै़र-ज़रूरी, निरर्थक वस्तु की तरह
सेफ्टी पिन।
जिसे नहीं फेंका जा सकता
इतनी बड़ी , बहुमुल्य भी नहीं
कि संभाल कर रखा जाए
वो होती हैं बीच की
जैसे बीच का सत्य
जिसे झूठा साबित होने से बचने के लिए बोला जाता है
बीच का मनुष्य
जो न मारता है न बचाता है
बीच का प्रेम
न अपनाता है न जाने देता है।
मगर कई बार कहीं निकलते हुए हमेशा
इन सेफ्टी पिन के ना मिलने पर
लिबाज़ बदल लेना पड़ता है
खंगाल लेना पड़ता है पूरा-पूरा घर
अनुपस्थिति इनकी
महफिलों की झुंझलाहट बन जाती है।
तुमको भी तो रोजमर्रा में
सरका ही दिया जाता है
एरी-ग़ेरी जगहों में
आलतू-फालतू मान कर
उपेक्षित कर दिया जाता है
मगर कभी-कभी अकस्मात्
तुम बेहद ज़रूरी शय की तरह उभरती हो
हवनों में बैठाई जाती हो
रस्मों में बुलाई जाती हो
पार्टियों में तुम बिन
तुम्हारे देवताओं के बड़े-बड़े सौदे नहीं होते
मंच में हाथ भर जोड़ लेने से तुम्हारे
बदल जाती है सत्ताएँ
मुन्ना का पाख़ाना धोने से लेकर
परमेश्वर के बिस्तर में सजने तक
तुम बहुत अनिवार्य हो जाती हो।
तुम दो घरों को जोड़ती हो
फिर भी दो कृतघ्न हाथों को जुड़वा कर कृतज्ञ करने में
असफल हो जाती हो।