भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सेमलों-से भाई औ / नईम
Kavita Kosh से
सेमलों-से भाई औ
कचनार-सी भौजाइयों के,
खो गए संदर्भ
बौराई हुई अमराइयों के।
बचे
ले-देकर हमी-हम
फागुनी आकाश सूने,
त्रासदी अपने दिनों की
रिक्तताओं के नमूने;
खोजता हूँ अर्थ संगत
इन नई तनहाइयों के।
विगत से
उकताए ऊबे
अनागत से अनमने हम,
विसंगतियों के समुच्चय
जं़ग खाये झुनझुने हम;
आज पैमाने हुए
अंधे कुएँ गहराइयों के।
मसख़री के मिस
उलीचें
धूल-कीचड़ पीठ पीछे,
पाँव पोंछे आदमी से,
बचाकर रखते गलीचे।
छुपाते हैं पेट अपने
बेवजह क्यों दाइयों से?