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सेवाभाव / मिथिलेश श्रीवास्तव

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बुलेट-प्रूफ़ शीशे के पीछे
वे पूरे इत्मीनान से बैठे हैं
मोजरा के लगने से फल के आने का-सा इत्मीनान
और बाँट रहे हैं खुले हाथ

क़िसिम-क़िसिम के हैं लेने वाले
क़तारों में अलग-अलग

मारुतियों में आने वाले लोग
क़तारों में आगे बढ़ जाते हैं
उनका मुँह सदा चलता ही रहता हैं
खाते रहते हैं कुछ-कुछ
गाड़ी की हेडलाइट की तरह
हमेशा सीध में देखते हैं
सब कुछ अपना चरागाह मानता हुआ जैसे साण्ड
दोस्ती करते हैं चाय पीते हैं

उनके पीछे की क़तार में
वे लोग हैं जिनके पहुँच के लोग
दूसरी उपयोगी जगहों पर बैठे हैं
बुलेट-प्रूफ़ शीशे के पीछे
जहाँ इनके अपने लोग जाते रहते हैं ।

तीसरी क़तार में खड़े लोग
इनके अपने हैं
सम्पर्क-सूत्र
ये लोग प्रजातन्त्रर के ज़रूरी लोग हैं
लोगों के बीच ये ही होते हैं
फ़ाकाक़शी के दिनों के जाने-पहचाने
लोगों की सिफ़ारिश पर आए
लोगों की यह चौथी क़तार है

और पीछे की क़तारें
बाढ़ के पानी की तरह बह आए लोगों की हैं

शीशे के इस पार
झलक रहा है सब कुछ साफ़-साफ़
मेज़ पर थमी झटके से उनकी क़लम
जैसे थक गए हों वे सेवा करते-करते
जैसे और किसी के लिए समय ही नहीं बचा है
किसी और को कुछ देने के लिए कुछ नहीं बचा है जैसै

शीशे का पारदर्शी होना
उन्हे अनमना कर देता है ।