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सेहन्ता / नरेश कुमार विकल
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सिंगरहारक सभटा फूल-
सजौने ठाढ़ि छी आबी।
जुआनी सांझ केर आयल
कही तँ दीप जराबी ?
हमर सुधि केर सागर मे,
ने जानी ढेप के मारय।
जरल ई देह बिनु आगिक,
तकरा आर के जारय।
बिछौना आँखि केर कयने,
कहू कत दिन बिछाबी ?
ने फूलक रूप मे कोनो
नवका रंग हम देखी।
पहिलुक गन्ध सँ ओहि मे
नवका गन्ध कम देखी।
दीपक बाति कें एखनो,
कही तँ आओर जराबी।।
ने संग चान ओ तारा,
ने संगी मोन कें मानय।
हृदय मे भऽ रहल की सभ,
ओ अनकर आन के जानय।
सेहन्ता भऽ रहल हमरा
कने मानिनी कहाबी।।