भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सैर-ए-शब-ए-ला-मकाँ और मैं / मनचंदा बानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सैर-ए-शब-ए-ला-मकाँ और मैं
एक हुए रफ़्तगाँ और मैं

साँस ख़लाओं ने ली सीना भर
फैल गया आसमाँ और मैं

सर में सुलगती हवा तिश्ना-तर
दम से उलझता धुवाँ और मैं

इस्म-ए-अबद की तलाश-ए-तवील
हुस्न-ए-शुरू-ए-गुमाँ और मैं

मेरी फ़रावानियाँ नौ-ब-नौ
अब है नशात-ए-ज़ियाँ और मैं

दोनों तरफ़ जंगलों का सुकूत
शोर बहुत दरमियाँ और मैं

ख़ाक ओ ख़ला बे-चराग़ और शब
नक़्श ओ नवा बे-निशाँ और मैं

फिर मेरे दिल में कोई ताज़ा खोट
फिर कोई सख़्त इम्तिहाँ और मैं

कब से भटकते हैं बाहम अलग
लम्हा-ए-कम मेहर-बाँ और मैं

दूर छतों पर बरसता था क़हर
चुप रहे क्यूँ तुम यहाँ और मैं

ग़ैर मतालिब कहीं और ढूँढ
सहल बहुत शरह-ए-जाँ और मैं