सैलानियों की कविता / संजय कुमार शांडिल्य
पानियों और पर्वतों पर लोग
समन्दर और रेगिस्तानों में लोग
पानियों को झाँक रहे हैं
पर्वतों को ताक रहे हैं
समन्दर को निरख रहे हैं
रेगिस्तान से प्यार कर रहे हैं
यह तुम समझ सकते हो।
एक रेगिस्तानी साँप है
उसे नहीं लगता है
कुछ पानियों की मछलियाँ है
ऐसा नहीं सोचती है
समुद्र अपने विचारों में
इसे ग़लत समझता है
पर्वतों को तो सच
साफ़-साफ़ दिखता है
क्योंकि वो सबसे ऊँचा है।
मछलियों को मड़ुए की
लोइयाँ मछुआरे डालते हैं
सैलानी तो तस्वीरें खींचता है
साँपों को चूहे तो
वही रंगों नहाई लड़की खिलाएगी
जो रेगिस्तान की धुन पर
कालबेलिया नाचती है
समन्दर तो अपनी लहरें
उसे ही भेजेगा
जो गजरौला पहने समुद्री हवाओं पर
मछलियाँ सेकती है।
सैलानी तो अपने शरीर बच्चों को
सलीके सिखाता हुआ झिड़केगा
और उनपर नज़र रखता थक जाएगा।
इस यात्रा में वह पाँव, जीभ और पेट
लेकर आया है
उसे मड़ुए की लोइयाँ निगलती
मछलियाँ नहीं दिखेंगी
यह कामायनी तो मछुआरे बाँचेगे
उसे साँप का सुनहरा लोचदार
नॄत्य नहीं दिखेगा
यह नाट्यशास्त्र तो कालबेलिया सीखती
बंजारन पढ़ेगी
बाघों के पंजो की छाप की चित्रकलाएँ
उसके लिए नहीं हैं
उसे तो बिना डरे कमर पर
सिर नीचे साधे
लकड़ियों का बोझ तौलती
वह पहाड़न निरखेगी
डूकरने की आवाज़ जिसके
ख़ूब अँधेरे गाँव में साँझ
ढलते सुनाई पङती है
तो वह जान जाती है
किस जगह बाघ छोङकर
जाएगा अपना पंजा
हम सिर्फ़ थकान लेकर लौटेंगे
पानियों से, पहाड़ों से
समन्दर से, रेगिस्तानों से
हमें लिखी गई कविताओं के
बारे में कुछ भी पता नहीं चलेगा
हम बाघों की तरह प्यार करेंगे
अपनी नस्लों से
हम इस यात्रा से सिर्फ़
मॄत्यु लेकर लौटने वाले हैं।