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सॉनेट (भीतर कैसी दो) / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
भीतर कैसी दो उथल-पुथल है, भावों का
रेला चलता है, बैठा विचार हाथ मलता है
भावों की हत्या मैं कर दूं, पर अभावमय
मेरा जीवन है, जीवन को कुछ लंबा कर दूं।
और, ठौर फिर कहां मिलेगा, अब बची हुई
कितनी आंखें हैं जिनमें जल है बाकी, तल है
सूखा घट-घट का जिसमें अर्थ भरा हे, व्यर्थ
किसे कैसे कर दूं मैं किस - किस अनर्थ को।
बंधन कोई नहीं पर सर पर बोझा है
उसको साधे दौडूं तो खप जाए जीवन।
इसी साधना में, और आराधना बाकी रह जाए
जन - जन की, बोझों में बंधा हुआ जीवन है
पल-पल मरता,जो उचित कहीं मिलता जल,वायु
मिलती तो छोड इसे मैं दौड चला जाता जनपथ पर।
1992, त्रिलोचन के लिए