भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोए कहाँ थे आँखों ने तकिये भिगोये थे / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोये कहाँ थे आँखों ने तकिये भिगोए थे
हम भी कभी किसी के लिए ख़ूब रोए थे

अँगनाई में खड़े हुए बेरी के पेड़ से
वो लोग चलते वक़्त गले मिल के रोए थे

हर साल ज़र्द फूलों का इक क़ाफ़िला रुका
उसने जहाँ पे धूल अटे पाँव धोए थे

आँखों की कश्तियों में सफ़र कर रहे हैं वो
जिन दोस्तों ने दिल के सफ़ीने डुबोए थे

कल रात मैं था मेरे अलावा कोई न था
शैतान मर गया था फ़रिश्ते भी सोए थे