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सोचता मन में हूं, मानो भाषा के असंख्य शब्द / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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सोचता मन में हूं, मानो भाषा के असंख्य शब्द
हुए है मुक्त आज,
दीर्घकाल व्याकरण दुर्ग में बन्दी रहने के बाद
अकस्मात् हो उठे विद्रोही आज,
अधीर हो अविश्राम कर रहे कवायद हैं।
तोड़ रहे बार-बार व्याकरण को
कर रहे ग्रहण वे मूर्खो के भाषण को,
छिन्न कर अर्थ का श्रंखल पाश
साधु साहित्यकार करते हैं व्यंग हास्य परिहास।
और सब छोड़कर मानते हैं केवल श्रुति को
विचित्र उसकी भंगिमा है विचित्र उनकी युक्तियाँ।
कहते हैं, हमने जन्म लिया है
इस धरणी पर निश्वसित पवन में
आदिम ध्वनि की सन्तान के रूप में
मानव कण्ठ में मन हीन प्राण जब
नाड़ी के झूले में सद्य जागरण में
नाच-नाच उठे थे।
शिशु कण्ठ में लाये हम आदि काव्य
आस्तित्व की प्रथम कलध्वनि।
गिरि शिखर पर पागल निर्झर श्रावण दूत जो
उसी के कुटुम्बी हम
आये हैं लोकालय में
मन्त्र लेकर सृष्टि की ध्वनि का।
मर्मर मुखर वेग से
ध्वनि का जो कलात्सव
अरण्य के तरू पल्लवों में है हो रहा,
जो ध्वनि दिगन्त में आँधी के छन्द का करती है तौल नाप,
निशान्त में जगाती जो प्रभात का महा-प्रलाप,
उस ध्वनि के क्षेत्र से आहरण किये हैं शब्द मनुष्य ने
वन्य घोटक के समान अपने जटिल नियम सूत्र जाल में
वार्ता वहन करने को अनागत दूर देश काल में।
सवार हो लगाम-बद्ध शब्द अश्व पर
मनुष्य ने कर दी है मन्थर गति द्रुत काल की घड़ियों की।
जडत्र की अचल बाधा को तर्क वेग से करके हरण
अदृश्य रहस्य लोक में कर रहे संचरण,
व्यूह बाँध शब्द अक्षैहिणी
प्रतिक्षण मूढ़ता का आक्रमण
व्यर्थ कर, जीतती है प्रचण्ड रण।
कभी शब्द चोर से आ पैठते हैं
मानव मन के स्वप्न राज्य में,
नींद भाटा स्रोत में
पाते नहीं बाधा वे-
जो जी में आता है ले आते है,ं
छन्द के बन्धन में नहीं बँधते वे,
उसी से वुद्धि हो अन्यमना
करती है शिल्प रचना
सूत्र जिसका असंलग्न स्खलित और शिथिल है,
विधाता की सृष्टि से जिसका नहीं मेल है ;
जैसे दस बीस पिल्ले मिल एकसाथ खेलते है मत्त हो,
एकपर एक चढ़ते है, भूंकते हैं,
काटते है परस्पर बेमतलब,
उनके इस खेल में हिंसा का भाव नहीं,
उसमें है केवल उपाम ध्वनि और भंगिमा।
मन ही मन देखता हूं, दिन दिन भर
दल के दल शब्द केवल दौड़ा ही करते हैं
निज अर्थो से छिन्न हो, आकाश में मेघ जैसे
गरजते गड़गड़ाते हैं।

कलिंगपंग
24 सितम्बर, 1940