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सोचता हूँ कि ठहरूँ / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

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सोचता हूँ कि
ठहरुँ।
इंतजार करुँ।
शायद कोहरा छंटे।
नहीं तो लाऊँ धूप भर हथेली,
और रख दूँ ढीठ के माथे पर।
फिर देखूँ तुम्हारा विस्तार।

समय है,
जो ठहरा है तो ठहरा है।
शब्द है,
जिस पर अनादि से पहरा है।

अनागत की रोशनी,
जो आप ही टल गई।
सुबह की लालिमा,
जो शाम बनकर ढल गई।
तुम व्यस्त हो जीत में हर हार को नकार कर।
मैं कर रहा हूँ हवन खुद को अग्नि में उतार कर।

बढ़ चले तुम ढूंढने उजाला।
मैं अभी ठहरा हूँ।
टूटा नहीं, छूटा नहीं।
इंतजार में हूँ, कोहरा छटे।
और देखूँ तुम्हारा विस्तार।