भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोचता हूँ कि सोचना क्या है / संजय सिंह 'मस्त'
Kavita Kosh से
सोचता हूँ कि सोचना क्या है!
सोचने के लिए बचा क्या है!
एक आवाज़ कान मेंं आई,
शेष है सब अभी लिखा क्या है?
शांत प्रतिरोध भी ज़रूरी है,
अब सिवा इसके रास्ता क्या है!
हमने तुमको कमान सौंपी थी,
तुम भी समझो कि मुद्दआ क्या है?
सिर फुटौव्वल तमाम बेमक़्सद,
इस लड़ाई मेंं कुछ धरा क्या है!
वोट माँगे थे हाथ जोड़े थे,
पूछना था कि मशवरा क्या है!
कभी आधार तो कभी पहचान,
लेके क्यों पूछते पता क्या है?
दे चुके बायोमेट्रिक पहचान,
हो चुके नग्न हम छुपा क्या है!
औंधे मुँह गिर रही है जी.डी.पी.,
विश्वगुरु कहिए माज़रा क्या है?
लाठियों, गोलियों का ये तोहफ़ा,
या ख़ुदा 'मस्त' वाक़या क्या है?