भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सोचता हूँ क्या था अब क्या हो गया / ज़ाहिद अबरोल
Kavita Kosh से
सोचता हूं, क्या था अब क्या हो गया
इक समुंदर कैसे सहरां हो गया
धज्जियां उड़ती रहीं तहज़ीब की
पल में मेरा मुल्क नंगा हो गया
इस सियासत में जो डूबे हैं उन्हें
सर उठाने का वसीलः हो गया
आज हर क़ैद-ए-सियासत के लिए
काग़ज़ी लोगों का पहरा हो गया
फिर किसी का लम्स याद आया मुझे
फिर कोई एहसास तन्हा हो गया
ख़्वाब में देखा था “ज़ाहिद” इक ख़ुदा
आंख खुलते ही वो मेरा हो गया
शब्दार्थ
<references/>