सोचता हूँ मुद्दतों से, सुर्ख होठों को तुम्हारे / प्रदीप कुमार 'दीप'
सोचता हूँ मुद्दतों से, सुर्ख होठों को तुम्हारे,
प्रेम का पावन पुरातन, तीर्थ लिख दूँ धाम लिख दूँ।
दो इजाजत तुम अगर तो, नेह की ले रोशनाई,
प्रीति की पुस्तक के पृष्ठों पर तुम्हारा नाम लिख दूँ॥
सिंधु से गहराइयाँ ले, चक्षुओं को दूँ तुम्हारे,
और चेहरे को चुराकर चाँद से कुछ नूर दे दूँ।
फूल गजरों से सजा दूँ, वेणियों को मैं तुम्हारी,
माँग कर अम्बर से तारे माँग को भरपूर दे दूँ।
हाथ में लेकर कलम मैं आज अपनी डायरी में,
गीत का आगाज तुमको छंद का अंजाम लिख दूँ॥
देह को रंगत गुलाबी दें, गुलाबों से कहूँ मैं,
तितलियों से बोल दूँ, डालो जरा नजदीक डेरे।
मुस्कुराहट पर हसीं रातें, तुम्हारे नाम कर के,
खिलखिलाहट पर तुम्हारी, वार दूँ लाखों सवेरे॥
प्यार पाया है तुम्हारा तो किये होंगे ही मैंने,
शुभ कई सद्कर्म जिनका यह सुखद परिणाम लिख दूँ।
नर्म से नाजुक करों को, थाम लूँ अपने करों में,
वक्ष से तुमको लगा लूँ, तोड़कर प्रतिबंध सारे।
मौन को पढ़कर समझकर, भाव की भाषा अनोखी,
सौंप ही दूँ एक चुंबन, भाल को उन्नत तुम्हारे॥
भाल की बिंदी को लिखकर भोर का सूरज सलोना,
"दीप" काले कुंतलों में शाम का विश्राम लिख दूँ।