सोचता हूं / शीतल साहू
सोचता हुँ,
सभी की भलाई
सब हो खुशहाल
ना हो कोई बदहाल।
सब करे प्रगति
सब करे उन्नति
सबको मिले अधिकार
फले फुले सबका परिवार।
ना किसी से ईर्ष्या है ना ही प्रतियोगिता
ना किसी से अपेक्षा है ना किसी की उपेक्षा
मन में ना किसी के लिए द्वेष, ना ही कपट
तो क्या इस सोच में ही है कुछ खोट।
क्या सबकी भलाई सोचने में है कुछ त्रुटि
क्या इस पर भारी है मानव की वृत्ति
क्या जानवरों से भिन्न हो पाया है मनुष्य की प्रवृत्ति
भैस जैसा बैर
बिच्छू जैसा डंक
हाथी जैसा अंह
गिरगिट जैसा रंग बदलना
केकड़े जैसा टांग खींचना
कुत्ते जैसा पैर चाटना
लोमड़ी जैसी चालाकी
सोचता हूँ क्या ये दुनिया ऐसी ही रहेगा
क्या मानव इस प्रवृत्ति से उबर पायेगा
क्या वह स्वार्थ और वर्चस्व की लड़ाई से ऊपर उठ पायेगा
क्या कभी एकता और सौहार्द का सूरज चमकेगा
क्या कभी वसुधैव कुटुंबकम का स्वप्न पूर्ण हो पायेगा?