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सोचना ज़रा / वंदना गुप्ता

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कर लेते कुछ खुद से ही मोहब्बत
तो जिंदा रह जाती कुछ तो इंसानियत
या तो खोल लो खुद अपना मुँह
नहीं तो मैं जबरदस्ती खोल
उंडेल दूँगी ज़हर के घूंट तुम्हरे हलक में
जिसे तुम्हें अब अन्दर उतारना ही होगा
नहीं बच सकोगे अब तुम
नहीं छुपा सकोगे अब तुम
आडम्बरों में अपना चेहरा
जब हकीकत के शहरों के नक्शे
हो जायेंगे तर्जुमा तुम्हारे चेहरे पर
क्योंकि जान चुकी हूँ
तुम्हारी भीतरी दीवारों में चिनी
अनारकली के वजूद को
जहाँ सिर्फ़ एक इबारत लिखी होती है
जहाँ सिर्फ़ एक नाम लिखा होता है
फिर दवातों में स्याही हो या नहीँ
तुम अंकित कर ही देते हो
अपनी नज़रों के डैनों से
एक नाम
स्त्री तुम सिर्फ़ देह हो मेरे लिये
इस कटु सत्य को जानते हुये भी
जाने कैसे हो जाते हो निर्मम
और कर देते हो उसका ही कत्ल
भ्रूणावस्था में

जबकि एक अटल सत्य ये भी है
कि
ये जानते हुये भी
कि
तुम्हारी टांगों के बीच पलता जूनून
मेरी टांगों के बीच ही सुकून पाता है
फिर भी जाने क्यों
तुम्हें मेरा होना नही भाता है???

विडंबनाओं के दोगले चेहरे वाले दानव
क्यों भूल जाते हो
मेरे होने से ही होता है
सृष्टि निर्माण
मेरे होने से ही होता है
तुम्हारा वजूद

जब तुम्हारी ही
कुंठाओं का सारा आकाश हूँ
सिर्फ मैं ही
फिर भी मेरे होने पर ही क्यों चढ़ जाती हैं तुम्हारी त्योरियाँ सोचना ज़रा