सोचना तो गुनाह नहीं / शैलेन्द्र चौहान
सोचता हूँ
पत्थर भी तो नहीं मैं
होता अगर पत्थर
दीवाल खड़ी होती मेरे सहारे
या बागड़ लगी होती
घर के किनारे
टँगा होता मैं
धमार्थ-औषधालयों
मंदिरों, धर्मशालाओं में
लिखा होता नाम
किसी दानदाता का
स्टैच्यू बन खड़ा होता
व्यस्त चौराहों, पार्कों के बीच
तराश गया होता
किसी कलाकार के
सधे हाथों और मन से
तो सजा होता म्यूज़ियम
या आर्ट-गैलरी में
किसी पीपल के पेड़ के नीचे
ब्रह्मदेव
किसी मंदिर में शिवलिंग, नांदी
गिरजाघर में सलीब
गुरुद्वारे में आसन
मस्जिद में होता फ़र्श
सड़क में लगा बोझ सहता
अनगिनत वाहनों का
सुनता पदचाप पथिकों की
स्वान या आदमी की
दुर्घटनाग्रस्त मृतदेह
करती रक्तरंजित
देखता और सहता
चुपचाप यह सब
त्रासदी है मात्र इतनी
सोचता और समझता हूँ मैं
अभिव्यक्त करता भाव निज
सुख-दुख और यथास्थिति के
पहचानता हँ, हो रहा भेद
आदमी का आदमी के साथ
प्रतिवाद करना चाहता हूँ
अन्याय और अत्याचार का
किंतु व्यवस्था
देखना चाहती
मुझे मूक और निश्चेष्ट
नहीं हो सका पत्थर मैं
बावजूद, चौतरफ़ा दबावों के
तथाकथित इस विकास-युग में
इसलिए पीछे खड़ा हूँ।