सोचने से ही सँवर जाता है
और छूते ही बिखर जाता है
मैं जहाँ ख़्वाब में भी जा न सकूँ
जाए वो छोड़ अगर जाता है
देखता हूँ तो न दिखता है कहीं
और मेरी आँख में भर जाता है
दुख के प्याले न दे इतने भर के
रोज़ पीने से असर जाता है
शाम घर लौट रहें हैं पंछी
दिल ये अब देख किधर जाता है
प्यार कितनों का पसीने जैसा
अपने ही जिस्म में मर जाता है
नए रस्तों पे नए पाँवों को
दे के वो अपनी नज़र जाता है
खुलती पहचान उसकी जब 'अनिमेष'
पास से कोई गुज़र जाता है