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सोचा कविता लिखूँ / नंदकिशोर आचार्य

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सोचा, एक कविता लिखूँ
सृष्टा के बारे में
पर क्या लिखूँ-
शक्ल तक नहीं जानता मैं-
नहीं मालूम कोई भी जानता भी है-
कहा जिसने- सुन-सुन कर कहा उसको।

तब सोचा चलो
लिखता हूँ उसकी सृष्टि के बारे में
वह तो सामने ही है
-और भी बड़ा रहस्य निकली
भाई वह तो
अपने सृष्टा से भी अधिक
-वह ख़ुद भी शायद नहीं समझ पाया
होगा उसको-
कभी क्या हुआ है ऐसा
अपनी सॄष्टि का उपभोग्य हो सर्जक?

तुम्हारे बारे में लिखना ही तब
तय कर लिया आख़िर
लिखने लगा तो पाया-
कभी सॄष्टा के बारे में होती है वह
कभी सृष्टि के बारे में
कहीं उसी में खो जाती हो तुम-
इसे कवि कह सकता यों भी :
कभी सृष्टा, कभी यह सृष्टि
हो-सी जाती हो तुम
-उसके लिए।