सोचा था कविता लिखूंगा / महेश रामजियावन
फूलों की पंखुड़ियों पर
पर फूलों की पंखुड़ियों को रसहीन कर चुकी हैं मधुमक्खियाँ
और बेरस फूलों की पंखुड़ियों पर जम चुकी हैं धूल
सोचा था कविता लिखूंगा
ओस की बूंदों पर
पर उन हीरों जैसी बूंदों पर
बादलों ने पोत दिये हैं प्रदुषण की कालिख
सोचा था कविता लिखूँगा
चांदनी रात पर
पर अब बूढ़ा चांद
सूरज की गरिमा तापने की ताक में
मैला कर चुका है अपनी फटी कम्बल
सोचा था कविता लिखूँगा
काले बादलों के ऊपर
पर अमावस्या की पुती कालिख से
बदनाम, मुँह छिपाता
तूफानों से घुलमिलकर ढा रहा है
हवापात, जलपात
जानी अनजानी जगहों में बेवजह
सोचा था, कविता लिखूँगा
लहराते संगीत पर
पर सुरों, तालों और लयों ने मिलकर
छेड़े है बगावत के राग
संगीतकारों के विरुद्ध
सोचा था कविता लिखूंगा
शब्दों पर
पिरोकर शब्दों और अक्षरों को गुड़ियों की तरह
और फिर बनाऊँगा
लम्बी डोरियों वाली,
हवा में अठखेलियाँ कसती पतंग
पर शब्दहीन हो चुके हैं अब शब्द
गुड़ियाँ हो चुकी हैं कलयुक्त
डोरियाँ बन चुकी हैं---
झूलती डालियाँ
डोरहीन पतंग बन चुकी हैं हवाई यान ।