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सोच, मत हो चित्त चंचल / अमरेन्द्र
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सोच, मत हो चित्त चंचल,
आज क्या है, और क्या कल ?
जो तुम्हें करना यहाँ है
नींव रख तू, घर खड़ा कर,
विघ्न-बाधा सोचना क्या,
हर कदम पर मत अड़ा कर;
पूस की है धूपµसाँसें
सोचते क्या, थाम लोगे ?
यह तुम्हें ही सोचना है
काल से क्या काम लोगे ।
फूँक मारो उंगलियों पर
बज उठेंगे वेणु-मादल !
क्यों प्रतीक्षा में रहो तुम
स्वातिसुत-सा; स्वाति बरसे।
क्या तरसना इस तरह से
जिस तरह बैशाख तरसे ।
जो बनो, तो सौन, भादो,
चैत का मधुमास हो जा !
पूर्णिमा का चाँद ही क्या,
चातकों की प्यास हो जा !
बह रही मरुभूमि में है
फिर नदी वह शांत कोमल।