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सोच की दहलीज़ पर सूरज मचलता जायेगा / उर्मिल सत्यभूषण
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सोच की दहलीज़ पर सूरज मचलता जायेगा
ताप पाकर दर्द का हिमखंड गलता जायेगा
इन दरख़्तों के तले बैठे हो क्यों थक हार कर
बरगदों का यह छलावा और छलता जायेगा
आंधियां तूफान भी उसको बुझा सकते नहीं
आस का दीपक जलाओ, दीप जलता जायेगा
मंज़िलें हैं दूर कितनी रास्ते धुंधला गये
बिजलियां पग में भरो तो पथ निकलता जायेगा
तम से घबराओ न उर्मिल अब सहर आने को है
भोर का सूरज अंधेरों को निगलता जायेगा।