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सोच की सीमाओं के बाहर मिले / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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सोच की सीमाओं के बाहर मिले
प्रश्न थे कुछ और कुछ उत्तर मिले
किसकी हिम्मत खोलता अपनी जुबाँ
उनके आगे सब झुकाए सर मिले
घर बुलाया था बड़े आदर के साथ
लो महाशय ख़ुद नहीं घर पर मिले
बेचने को ख़ुद को तत्पर हैं सभी
जब जिसे, जैसा, जहाँ अवसर मिले
हमको ऐ जनतंत्र तेरे नाम पर
उस्तरे थामे हुए बंदर मिले
हर ख़ुशी ने औपचारिक भेंट की
दर्द सब हमसे बहुत खुलकर मिले
उम्र भर वो पेड़ फल देता रहा
फिर भी दुनिया से उसे पत्थर मिले
ऐ ‘अकेला’ न्याय ज़िन्दा है कहाँ
घर बनाने वाले ही बेघर मिले