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सोच के अंकुर उगेंगे फिर नये / देवी नांगरानी

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सोच के अंकुर उगेंगे फिर नये
रिशता उनका ताज़गी से जब जुड़े

यूँ तो योद्धा, ख़ुद को हम समझा किये
क्या कभी हम बेज़मीरी से लड़े

सब्र की पलकों पे बंधे हों बाँध जब
आँसुओं के रुक गए हैं सिलसिले

भूख से है भीख का नाता जुड़ा
भीख के यूँ ही कहाँ आदी बने ?

छीनते हैं हक जो औरों का, वही
‘काम ये अच्छा नहीं’ कहते रहे

यूँ चली धोखाधड़ी बाज़ार में
अब खरों के साथ खोटे चल पड़े

आके आँखों में निराशा भर गई
ख़ाली आशाओं के जब दामन हुए

ये ज़वाल आएगा सब पर एक दिन
सामने जो शाख़ से पत्ते गिरे