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सोच के ये निकले हम घर से / साग़र पालमपुरी
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सोच के ये निकले हम घर से
आज मिलेंगे उस दिलबर से
काँटे चुनते उम्र गुज़ारी
हमने उसकी राहगुज़र से
कैसे बच पाता बेचारा
दिल का पंछी तीर-ए-नज़र से
मौसम था रंगीन मगर हम
निकल न पाये शाम-ओ-सहर से
कह ही देंगे उनसे दिल की
काश! वो गुज़रें आज इधर से
प्यासी धरती जिसको चाहे
वो बादल सहरा पर बरसे
‘साग़र’! ग़ज़ल सुनाओ ऐसी
लिक्खी हो जो ख़ून-ए-जिगर से.