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सोच बदल लें / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
उग आए हैं
कई छोटे-बड़े द्वीप
पानी की सतह पे
झाड़-झंखाड़ के।
कल जहाँ बहता था
कल कल करता पानी
आज सिकुड़ गये हैं किनारे
गंदगी के ढेर बसे।
ठहरा ठहरा-सा पानी
गंदला हो गया है
काई लगी सतह पर
नाव नहीं चलती
मछियारे लौट जाते हैं
ख़ाली नाव लिए
मछलियाँ तड़पती हैं
और सूरज पानी में
उतर कर नहाता नहीं
चाँद भी उदास दिखता है
तारे फीके नज़र आते हैं
इससे पहले कि मन में भी
उग आए झाड़-झंखाड़
हम सम्भल जाएँ और
अपनी सोच बदल लें।