सोच रहा है गुमसुम बैठा रामभरोसे,
कब तक आख़िर देश चलेगा रामभरोसे!
रोटी, कपड़ा और मकान, अभी भी सपना,
खींच रहा बचपन से ठेला रामभरोसे।
श्रम-सीकर से पूँजी का घर भर देता है,
ख़ुद पा लेता चना-चबेना रामभरोसे।
गाँधी के तीनों बन्दर, बन्दर ही निकले,
बाँच रहा बस उनका लेखा रामभरोसे।
दे जाता है हर चुनाव छलनी-भर पानी,
उसको भी माथे धर लेता रामभरोसे।
चाहे जितनी कठिन परीक्षा ले लो उसकी,
लेकिन ख़ुद को दग़ा न देगा रामभरोसे।