सोज़े फिराक़ (विरह की आग) / नज़ीर अकबराबादी
मुझे ऐ दोस्त! तेरा हिज्र अब ऐसा सताता है।
कि दुश्मन भी मेरे अहवाल पर आँसू बहाता है।
ये बेताबी ये बेख़्वाबी ये बेचैनी दिखाता है।
न दिल लगता है घर में और न सेहरा मुझको भाता है॥
अगर कुछ मुंह से बोलूँ तो मजा उल्फ़त का जाता है।
अगर चुपका ही रहता हूँ कलेजा मुंह को आता है॥
मरा दर देस्त अन्दर दिल अगर गोयम ज़वाँ सोज़द।
विगर दम दर क़शम तरसम कि मग़्जे उस्तुख़्वाँ सोज़द<ref>मेरे दिल में ऐसा दर्द है कि यदि मैं उसका वर्णन करूँ तो ज़बान जल जाय, यदि न कहूँ तो उसकी गर्मी से मेरे सिर की हड्डियों का गूदा पिघल जाय</ref>॥
कूक करूँ तो जग हँसे चुपके लागे घाव।
ऐसे कठिन सनेह का किस बिध करूँ उपाव॥
न था मालूम उल्फ़त में कि ग़म खाना भी होता है।
जिगर की बेकली और दिल का घबराना भी होता है॥
सिसकना, आह भरना, अश्क भर लाना भी होता है।
तड़पना, लोटना, बेताब हो जाना भी होता है॥
किये पर अपने फिर आपी को दुख पाना भी होता है।
क़फे-अफसोस को मल मल के पछताना भी होता है॥
अगर दानिस तमज़ रोजे़ अजल दागे़ जुदाई रा।
न मी करदम व दिल रोशन चिरागे़ आशनाई रा<ref>यदि मैं अज़ल के दिन से विरह के दुख और उसके दाग को जानता तो मैं अपने दिल में प्रेम और मुहब्बत का चिराग़ रोशन न करता।</ref>॥
जो मैं ऐसा जानती प्रीति करे दुख होय।
नगर ढ़िंढ़ोरा पीटती पीतन की जौ कोय॥
सहर से शाम तक सहरा में फिरता दिन को मनमारे।
लगाकर शाम से ता सुबह गिनता रात के तारे।
लबों पर आह दिल में दाग़ जों आतिश के अंगारे।
जिसे दिल चाहता है उसको कुछ परवाह नहीं बारे।
जब उसकी ही ये मर्जी है तो चुप बैठे हैं बेचारे।
मगर उसके तसव्वुर में यही कहते हैं ऐ प्यारे।
ज़िहाले मन कि चूनम बे रख़्त दारी ख़बर याना।
दिले मन सोख़्त आया दर्दिलत वाशद असरयाना<ref>मैं तेरे चेहरे के दीदार के बिना कैसा हूँ मेरी इस दशा से तू खबर रखता है या नहीं। मेरा तो दिल जल गया लेकिन तेरे दिल पर भी इसका प्रभाव है या नहीं</ref>॥
आह दई कैसी भई अनचाहत के संग।
दीपक को भावै नहीं जलजल मरै पतंग॥
कभी होकर गिरेबाँ चाक सेहरा को निकलता हूँ।
कभी घबराके फिर घर की तरफ नाचार चलता हूँ।
लगी है आग दिल में शमा सा जलकर पिघलता हूँ।
धुंआ उठता है आहों का बरंगे मोम गलता हूँ।
बदन में देखकर शोला भड़कते हाथ मलता हूँ।
भभूके तन से उठते हैं सती की तरह जलता हूँ।
ज़िताबे आतिशे दूरी कि मी सोज़द दिलों जाँरा।
नमूदह नब्जे़ मनपुर आबला दस्ते तबीं बाँरा<ref>मेरे हृदय और प्राणों को जलाने वाली विरह की आग की गर्मी से मेरे हाथ की नाड़ी हकीमों को आँवले भरी नज़र आती है</ref>।
वि़रह आग तन मैं लगी, जरन लगे सब गात।
नारी छूबत वैद के पड़ें फफोला हाथ॥
ग़ज़ब है एक तो समझे न दिल और जी भी घबरावे।
तिस ऊपर हर घड़ी उस दिलरुबा की शक्ल याद आवे।
न हो दिल क्यूं कि टुकड़े और न जाँ किस तौर घबरावे।
दरो दिवार से क्यूं कर न कोई सर को टकरावे।
लगी जो आग दिल में फिर वह बुझने किस तरह पावे।
मगर जिसने लगाई हो, वही आकर बुझा जावे।
चु दरदिल आतिशे दूरी फितर ऊरा कि बिन शानद।
मगर आँ कस कि आतिशज़द हमां आवे बर अफ्सानद<ref>दिल में जो विरह की आग लगी है उसे कौन ठंडा कर सकता है सिवाय उसके कि जिसने यह आग लगाई है।</ref>।
हिरदे अंदर दौ लगी धुवां न परगट होय।
जा तन लागे सो लखे या जिन लाई सोय॥
कहाँ तक खाइये ग़म, अब ग़म खाया नहीं जाता।
दिले बेताब को बातों से, बहलाया नहीं जाता।
क़दम रखता हूँ जिस जां, वाँ से सरकाया नहीं जाता।
यह पत्थर हाथ से तिल भर भी उकसाया नहीं जाता।
पड़ा हूं दश्त मैं रस्ता कहीं पाया नहीं जाता।
जो चाहूं भाग जाऊँ भाग भी जाया नहीं जाता।
मकाने यारो दूरज़ मन न परदारम न पाए दिल।
अजब दर मुश्किलुफ्तादम चि साँ ते साज़म ई मंजिल<ref>मेरे प्रिय का मकान मुझसे दूर है मेरे पास न पंख हैं, न पांव में शक्ति है। ऐ दिल! मैं अजीब मुश्किल में पड़ गया हूँ किस तरह इस मंज़िल को तय करूँ।</ref>।
ना मेरे पंख न पाँव बल मैं अपंग पिय दूर।
उड़ न सकूँ गिर-गिर पडूँ रहूँ बिसूर बिसूर॥
इधर दिल मुझसे कहता है, तू चल यार के डेरे।
उधर तन मुझको कहता है, कि तू मत मुझको दुख देरे।
जो कहना दिल का करता हूं, तो रहता वह घर मेरे।
मगर तन की सुनूं तो और दुख पड़ते हें बहुतेरे।
न दिल माने, न तन माने हरइक अपनी तरफ फेरे।
करूँ क्या मैं ‘नज़ीर’ ऐसी, जो मुश्किल आन कर घेरे।
दिलम दिलदार मी जोयद तनम आराम मी ख़्वाहिद।
अजाइब कशमकश दारम कि जानम मुफ्त भी काहिद।
दिल चाहे दिलदार को और तन चाहे आराम।
दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम॥