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सोज़-ओ-गुदाज-ए-इश्‍क़ का चर्चा न कर सके / 'मुशीर' झंझान्वी

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सोज़-ओ-गुदाज-ए-इश्‍क़ का चर्चा न कर सके
हुस्न-ए-सितम-ज़रीफ को रूसवा न कर सके

वो ज़ख़्म चाहता हूँ मैं ऐ हुस्न-ए-दिल-फ़रेब
जिस को तेरी निगाह भी अच्छा न कर सके

जब आद आ गया हमें अफ़साना-ए-अज़ल
ग़म-हा-ए-रोज़गार का शिकवा न कर सके

उट्ठी निगाह-ए-शौक तो पथरा के रह गई
उस जलवा-ए-हसीं का नज़ारा न कर सके

साक़ी तेरी निगाह का अंदाज़ देख कर
मय-कश ब-कद्र-ए-ज़र्फ तक़ाज़ा न कर सके

ख़ुद एतराफ़-ए-जुर्म किया हम ने ऐ ‘मुशीर’
लेकिन शिकस्त-ए-हुस्न गवारा न कर सके