भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोने की खटिया रूपे केर मचिया / मगही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मगही लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

सोने की खटिया रूपे केर मचिया, ईंगुर लगल चारो पाट<ref>चारो पाये में</ref> हे।
एक हाथ तेल, दूसर हाथ अबटन<ref>उबटन</ref> सीता सिरहनमा<ref>खाट का वह हिस्सा, जिधर सिर रहता है</ref> लेले ठाढ़<ref>खड़ी</ref> हे॥1॥
गँगा किंरियवा<ref>गंगा की शपथ</ref> तूहुँ खाहु<ref>खाओ</ref> जी सीता, तब धरू पलँग पर पाँव हे।
गंगा हाथ लिहलन जबहिं सीता देइ, गंगा हो गेलन जलबाय<ref>अदृश्य। बाय = वायु</ref> हे॥2॥
येह किरियवा सीता मैं न पतिआऊँ<ref>विश्वास करूँ</ref> सुरुज किरियवा तूँ खाहु हे।
जबहिं सीता हे सुरूज हाथ लिहलन<ref>लिया</ref> सुरूज हो गेलन छपित हे॥3॥
येहु किरियवा सीता मैं न पतिआऊँ, अगिन<ref>अग्नि</ref> किरियवा तूँ खाहु हे।
जबहिं सीता देइ अगिन हाथ लिहलन, अगिन होलइ<ref>हो गई</ref> जरिछाय<ref>जलकर राख हो गई</ref> हे॥4॥
कहथिन रामचंदर सुनु देइ सीता जी, अब हम दास तोहार हे॥5॥
अइसन पुरूख<ref>पुरुष</ref> के जात<ref>जाति</ref> बनावल, झूठो लगावे अकलंक<ref>कलंक, दोष</ref> हे।
फाटत<ref>फट जाती</ref> भुइयाँ<ref>पृथ्वी</ref> ओकरो में<ref>उसी में</ref> समयतीं<ref>प्रवेश कर जाती</ref> मुहमाँ न देखतीं तोहार हे॥6॥

शब्दार्थ
<references/>