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सोने की घण्टी / प्रदीपशुक्ल

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हरी मखमली चादर लिपटी
जैसे हो सोने की घण्टी
या फिर कहीं लॉन के ऊपर
मुँह लटकाए बैठा बण्टी

पियरी ओढ़े नई दुल्हनिया
झाँक रही खिड़की से नीचे
पीताम्बर लपेट कर जोगी
ध्यानमग्न हो आँखें मीचे

गोद मचल कर लटक रहे हों
जैसे बच्चे कहीं हठीले
अरे! नहीं ये तो कनेर के
फूल खिल रहे सुन्दर पीले।