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सोने के खराम पर जदुनदन, अँगनमा पैर घालल हो / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

पति पत्नी से पैर धोने को कहता है। पत्नी अपने नैहर की संपन्नता और सात भाइयों की बहन होने के गुमान से ऐसा करने को तैयार नहीं है। अंत में, पति रूठकर विदेश जाने को तैयार हो जाता है। पत्नी रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और साथ ले चलने का अनुरोध करती है। पति उस पर व्यंग्य करते हुए कहता है-‘तुम संपन्न बाप की बेटी और सात भाइयों की प्यारी बहन होकर मेरे साथ परदेश कैसे जाओगी?’ पत्नी दीनतापूर्ण उत्तर देती है-‘मेरी माँ मर गई, पिता योगी हो गये और मेरे सातों भाई सात जगह हो गये। अब बहन का आदर कैसा? इस पर भी पति तीखा व्यंग्य करते हुए उस निःसंतान स्त्री से कहता है-‘मैंने कैसा बाग लगाया, जिसमें फल-फूल ही नहीं लगते और कैसा नैहर का गुमान, जहाँ बहन का आदर नहीं होता?’
अंतिम दोनों पंक्तियाँ बड़ी तीखी और मार्मिक हैं। अगर पत्नी संतानवती होती, तो पति उसका कुछ खयाल करता या नैहर में आदर होने पर वह नैहर चली जाती। परन्तु, दोनों से हीन रहने पर भी उसका ऐसा घमंड पति सहन कैसे करे?

सोने के खराम<ref>खड़ाऊँ</ref> पर जदुनंदन, अँगनमा पैर घालल<ref>रखना</ref> हो।
ललना रे, कैसन पतिसलबा<ref>लाखपति; राजा; पातशाह</ref> के धिअबा, पैरबो<ref>पैर</ref> नहीं धोअत हो॥1॥
हमर नैहरवा परभ सोनमा, त ओरिए<ref>ओरी; ओलती; छप्पर या छाजन का छोर, जहाँ से वर्षा का पानी जमीन पर गिरता है</ref> मोतिअवा चूवे हो।
ललना रे, सात रे भैया के बहिनियाँ, त सेहो कैसे पैर धोअत हो॥2॥
एतना बचनियाँ परभु जी सुनल, त सुनहु न पाओल हो।
ललना रे, घोड़ा पीठी भेल असबार चलिए भेल मधुबन हो॥3॥
झाँपी<ref>सींकी की बुनी हुई गोलाकार ढक्कनदार पिटारी</ref> में से काढ़ली<ref>निकाला</ref> पीतांबर, पेन्हिए ओढ़ि ठाढ़ भेल हो।
ललना रे, लपकी धैल चदरिक खूँट<ref>चादर का कोना</ref>, हमहुँ जौरे<ref>साथ में</ref> जाएब हो॥4॥
तोहर नैहरबा धनि सोनमा, त ओरिए मोती चूवे हो।
ललना रे, सात रे भैया के बहिनिया, सेहो कैसे जाएब हो॥5॥
मैया मोरी मरी हरी<ref>मर जाना</ref> गेलै, बाबूजी मोरा जोगी भेलै हो।
ललना रे, सातो रे भैया सात ठाम भेलै, बहिनिआ आदर नहिं होबै हो॥6॥
कैसन बगिया लगाएल, फल फूल नहीं लागे हो।
ललना रे, कैसन नैहर के गुमान, बहिनिआ आदर नहीं होबै हो॥7॥

शब्दार्थ
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