सोलहवीं ज्योति - गिरिवर (हिमालय) / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
गिरिवर! स्वरूप पत्थर का
धारण कर क्यों आये हो?
क्या इस स्वरूप में भी कुछ
जग को देने लाये हो?॥1॥
इस मानव जग के प्राणी
जो पत्थर-उर होते हैं!
वे कभी किसी को भी क्या
कुछ भी देते देखे हैं?॥2॥
कितना ही विपद-ग्रस्त हो
जग को रे कोई प्राणी।
पर उनका पत्थर-उर क्या
होता पसीज कर पानी?॥3॥
यह तो प्रिय! तुम ही हो जो
होकर कठोर पत्थरमय!
जग-हित स्वरूप परिवर्तित
कर बन जाते हो जलमय॥4॥
बन कर सर-सरिता-निर्झर
निशि-दिन बहते रहते हो।
इस शुष्क पिपासा-पीड़ित
जग को जीवन देते हो॥5॥
पर क्या यह जग तुमको प्रिय!
जीवन-दाता कहता है?
इस नाम-श्री से तो वह
घन को भूषित करता है॥6॥
घन वारि तुम्हारा ही ले
वारिधि से; बरसाता है।
उस पर भी चार मास में
खाली हो भग जाता है॥7॥
पर तुम तो सखे! वारि की
धारा बन स्वयं निरन्तर।
है कौन जानता कब से
बह रहे यहाँ पृथ्वी पर॥8॥
क्या लख जग की कृतघ्नता
निर्झर चढ़ उच्च शिखर पर
फटकार रहा है जग को
करके गर्जना भयंकर?॥9॥
या वह अपनी बोली में
सन्देशा सुना रहा है
”जग! देख हृदय-पत्थर का
भी कैसा पिघल रहा है॥10॥
तुझ में रे! जो प्राणी हैं
पत्थर-समान उर वाले।
उनके उर क्यों होते रे
ऐसे न पिघलने वाले?॥11॥
जब देख जगत् की पीड़ा
पत्थर पानी हो सकता,
तब पत्थर-सदृश हृदय रे
क्यों द्रवित नहीं हो सकता?”॥12॥
क्या सुना-सुनाकर जग को
सन्देश यही वह निर्झर
सिर पटक-पटक रोता है
उसकी इस निष्ठुरता पर॥13॥
x x x
क्यों सखे, शरीर तुम्हारा
हिम-आच्छादित रहता है?
क्या मृत-पाण्डव-स्मृति में वह
अविराम गला करता है?॥14॥
उस पर जब रवि की रक्तिम
किरणें आकर पड़ती हैं,
लगता मानो वे उसको
सुवरण से ढक देती हैं॥15॥
क्या यही सुवर्ण पिघलकर
सरिताओं में बहता है?
जिससे ‘सोने की चिड़िया’
भारत को जग कहता है॥16॥
प्रिय सखे! अभी तक ऐसा
दानी न दृष्टि में आया।
जिसने सुवर्ण-धन अपना
पानी के रूप बहाया॥17॥
बस, इसी त्याग से क्या तुम
मस्तक ऊँचा रखते हो?
त्यागी बनकर भी भारत
के ताज बने रहते हो?॥18॥