भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सो रहा है विश्व, पर प्रिय तारकों में जागता है! / महादेवी वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सो रहा है विश्व, पर प्रिय तारकों में जागता है!

नियति बन कुशली चितेरा-
रँग गई सुखदुख रँगों से
मृदुल जीवन-पात्र मेरा!
स्नेह की देती सुधा भर अश्रु खारे माँगता है!

धुपछाँही विरह-वेला;
विश्व-कोलाहल बना वह
ढूँढती जिसको अकेला,
छाँह दृग पहचानते पद-चाप यह उर जानता है!

रंगमय है देव दूरी!
छू तुम्हें रह जायगी यह
चित्रमय क्रीड़ा अधूरी!
दूर रह कर खेलना पर मन न मेरा मानता है!

वह सुनहला हास तेरा-
अंकभर घनसार सा
उड़ जायगा अस्सित्व मेरा!
मूँद पलकें रात करती जब हृदय हठ ठानता है!

मेघरूँधा अजिर गीला-
टूटता सा इन्दु-कन्दुक
रवि झुलसता लोल पीला!
यह खिलौने और यह उर ! प्रिय नई असमानता है!