सो रही दुनियाँ मगर वो जागती है।
दर्द की पाती छिपाकर बाँचती है।
पीर की थाती न कोई देख पाए ,
याद की चादर बिछाकर झाड़ती है।
कामनाओं को दवाकर आह भरती,
राख चूल्हे की सपन पर डालती है।
सामने कितने मुखौटे रोज आते ,
मौन हिरनी सी-सभी को जाँचती है।
भीड़ में रिश्तों की राहों पर भटकती ,
रोज अंधे कूप में , सिर मारती है।
वक्त से पहले झरीं अमराइयां सब ,
हैं बचीं सूखी टहनियाँ ताकती है।
रोशनी की चाह में हैं कल्प बीते
रोशनी छाया से उसकी भागती है।