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सो रही दुनियाँ मगर वो जागती है / कल्पना 'मनोरमा'

सो रही दुनियाँ मगर वो जागती है।
दर्द की पाती छिपाकर बाँचती है।

पीर की थाती न कोई देख पाए ,
याद की चादर बिछाकर झाड़ती है।

कामनाओं को दवाकर आह भरती,
राख चूल्हे की सपन पर डालती है।

सामने कितने मुखौटे रोज आते ,
मौन हिरनी सी-सभी को जाँचती है।

भीड़ में रिश्तों की राहों पर भटकती ,
रोज अंधे कूप में , सिर मारती है।

वक्त से पहले झरीं अमराइयां सब ,
हैं बचीं सूखी टहनियाँ ताकती है।

रोशनी की चाह में हैं कल्प बीते
रोशनी छाया से उसकी भागती है।