सौंदर्य परख / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
जब नहीं लिया जाता था
उनके संगमरमरी जिस्म का नाप
नहीं दी जाती थी
मधुर हँसी की क्लास
रटाए नहीं जाते थे तोतों को
बुद्धिमता के चुनिंदा सवाल-जवाब
जब नहीं देखते थे
बूढ़े-अधेड़ सौंदर्य पारखी
अपनी गिद्ध दृष्टियों से
चकाचौंध मंचों पर
उनकी बिल्लौरी चाल
और नहीं आते थे प्रायः अप्रत्याशित फ़ैसले
बाज़ार की श्रेष्ठता के
और सुंदरता की तौहीन के
तब मौसमोनुकूल वस्त्रों में लिपटी लड़कियाँ –
कुछ लंबी, कुछ छोटी
कुछ मोटी, कुछ पतली
कुछ गोरी, कुछ साँवली
अपनी नैसर्गिक हँसी हँसती हुई
कुछ खेतों –खलिहानों में
कुछ कस्बों-महानगरों में
रोज़मर्रा के कार्यों में
शरीर से पसीने की बूँदें टपकाती हुई
बिखरती हुई लटों को पीछे समेटती हुई
दिखती थीं अधिक सुंदर
इतनी सुंदर
कि उन्हें निहारने के लिए
चाँद भी बादलों की ओट में
झट छुप जाया करता था
चंचल मदमस्त झरनों की गति
धीमी हो जाती थी एकदम से
और प्रचंड सूरज भी कुछ पलों के लिए
निस्तेज हो जाता था खुद को भूलकर
हाँ, तब नहीं होती थी
गली–मुहल्लों, स्कूल–काॅलेज से लेकर
ब्रह्माण्ड के विशालतम मंच तक
उस सर्वश्रेष्ठ लड़की की तलाश
जो बढ़ा सकती है
किसी भी हद तक
उनका साम्राज्य
ज़मीन के हरेक टुकड़े
और दिलोदिमाग पर
बड़ी आसानी से!