भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सौन्दर्य-बोध / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
मेरे केश काली घटाओं जैसे नहीं हैं
न आँखें मछलियों-सी
चाँद जैसी उजली हूँ
न फूलों-सी नाजुक
मेरे हाथ खुरदुरे और मजबूत है
धूप में काम करने से
साँवला रंग पड़ गया है स्याह
जुटा लेती हूँ मेहनत-मशक्कत करके
अपना भोजन स्वयं
दूसरों के धन पर नहीं गड़ाती आँख
मेरे देह से फूटती है
एक आदिम गन्ध