भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सौभाग्यवती भव / वर्तिका नन्दा
Kavita Kosh से
इबादत के लिए हाथ उठाए
सर पर ताना दुपट्टा भी
पर हाथ आधे खाली थे तब भी
बची जगह पर
औरत ने अपनी उम्मीद भर दी
जगह फिर भी बाकी थी
औरत ने उसमें थोड़ा कंपन रखा
मन की सीलन, टूटे कांच
और फिर
आसमान के एक टुकड़े को भर लिया
मेहंदी की खुशबू भी भाग कर कहीं से भर आई उनमें
चूड़ियां भी अपनी खनक के अंश सौंप आईं हथेली में
सी दिए सारे जज्बात एक साथ
उसके हाथ इस समय भरपूर थे
अब प्रार्थना लबों पर थी
ताकत हाथों में
क्या मांगती वो
खट्टा-मीठा
मीठा खाने का मन था आज भी
कुछ खट्टे का भी
अंगूर सा उछलता रहा मन
नमकीन की तड़प भी अजनबी थी
शाम होते-होते
थाल मे नीम के कसौरे थे
कुनबे को परोसने के बाद
स्त्री के हिस्से यही सच आता है