भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सौ पगी हूण !/ कन्हैया लाल सेठिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धपाऊ मेह
हरी कचन
घोटां पोटां बाजरी
लीला छिम
खारीयै मान मोठ
कड्यां सूदो गुंवार
बेलां रै बैथाक चिंयां
को कातरो न फाको
रामजी री मैर
समूं जोर रो
साख सवाई
करसै रै नेणां में सपनां
मनड़ै में नेठाई
पण कुदरत री नीत में खोट
चनेक में फिरग्यो बायरो
चालगी बैरण नागौरण
बैठगी पींदै आल
सूखगी खेत्यां
पड़ग्यो अणधार्यो काळ,
मिनख, बरसावै नकली बिरखा
पण कठै नकली पून
दो पगी काया
सौ पगी हूण !