सौ बार लौह-ए-दिल से मिटाया गया मुझे / नश्तर ख़ानकाही
सौ बार लौह-ए-दिल<ref>दिल की तख़्ती, हृदय-पटल</ref> से मिटाया गया मुझे
मैं था वो हर्फ़-ए-हक़<ref>सच्ची बात</ref> कि भुलाया गया मुझे ।
इक ज़र्रा-ए-हक़ीर<ref>क्षीण कण</ref> तेरि रहगुज़र का था
लाल-ए-यमन<ref>यमन का क़ीमती पत्थर</ref> न था कि गँवाया गया मुझे ।
लिख्खे हुए कफ़न से मेरा तन ढका गया
बे-कत्बा<ref>क़ब्र पर लगी हुई तख़्ती से रहित</ref> मक़बरों<ref>वह स्थान जहाँ क़ब्रें हों</ref> में दबाया गया मुझे ।
महरूम करके साँवली मिट्टी के लम्स<ref>छूना</ref> से
ख़ुश रंग पत्थरों मे उगाया गया मुझे ।
पिन्हा<ref>छुपा हुआ</ref> थी मेरे तन में कई सूरजों की आँच
लाखों समन्दरों में बुझाया गया मुझे ।
किस-किसके घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे ।
मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे ।