स्किट्ज़ोफ़्रेनिया, मुक्ति की नदी और खो-खो / बाबुषा कोहली
(अलमित्रा ने कहा -- हमसे प्रेम के विषय में कुछ कहो। मसीहा ने सिर उठाया और सब पर शान्ति बरस पड़ी। उसने कहा -- प्रेम का संकेत मिलते ही उसके अनुगामी बन जाओ हालाँकि उसके रास्ते कठिन और दुर्गम हैं।
और जब उसकी बाँहें तुम्हें घेर लें, समर्पण कर दो, हालाँकि उसके पंखों में छिपी तलवारें तुम्हें लहूलुहान कर सकते हैं, फिर भी। और जब वह शब्दों में प्रकट हो, उसमें विश्वास रखो । -- खलील जिब्रान)
कि जैसे अन्तरिक्ष के ओर-छोर तक विस्तार था उस खेल के मैदान का ।
मैं सहमी-सकुचायी किनारे खड़ी थी । वो खो-खो का खेल था । पहली बार देखा था तुम्हें उस रोज़ खम्भे के पास देव-मुद्रा में खड़े हुए । तुम मुझे पुकारते और मैं पीठ कर लेती ।
छिलने लगी थी पीठ उन याचनाओं से ।
कितना तो लम्बा-चौड़ा मैदान है । मैं नहीं आऊँगी । हारना मेरी आदत नहीं और तुम से जीत कर क्या करना ?
तुम हौले से मुस्कुरा देते ।
"कहते हैं वो कि क्या करेंगे जीत के तुम से
कुछ रह गया है अब भी, करने को बेख़बर"
इतने लोग हैं, किसी को भी ले जाओ वहाँ तक.
मैं झिझक कर कहती । मन का सबसे गुप्त द्वार बेध जाने वाली तुम्हारी आँखें कहतीं ।
"न । और कोई नहीं. बस, तुम ही ।"
जैसे ज़िद ठान चुके थे कि मेरे साथ ही खेलोगे ये 'होने और खोने' का खेल और फिर ले जाओगे मैदान पार उस पवित्र नदी तक ।
तुम्हारी आवाज़ मेरा नाम भी छू जाए तो मैं कुम्हला जाती छुई-मुई की पत्ती-सी । कैसा आदमक़द चुम्बक सामने खड़ा था और मेरे लहू का कुल लोहा जैसे फड़कता-सा था ।
"बहाना है ये खेल वहाँ तक पहुँचने का. उस नदी तक ।"
लापरवाही से बताते तुम जैसे कोई बात ही न हो और इधर जान हलक पर अटक आई थी ।
नदी ? वो कौन सी नदी है ? क्यों जाना है वहाँ तक हमें ? मैं सोचती रह जाती और तुम मेरी कलाई पकड़ कर मैदान के भीतर खींच लेते ।
एक नदी बहती थी मैदान के उस पार नौ रंगों वाली ।
सोचती थी कि वहाँ के पानी में और कौन से दो रंग होते होंगे । उस नदी के बारे में सोचते हुए तुम ख़ुद डूब जाते और कुछ भी न कह पाते सिवाय इसके कि अनदेखे-अनछुए रंग हैं । पहुँचने का रास्ता भी ऊबड़-खाबड़-अबूझ । एक खेल खेलना है आकाश-गंगाओं के ऊपर झमकते हुए तो कभी ब्लैक होल के गहरे गड्ढे के भीतर डूबते हुए ।
"ये खुद को खो देने का खेल है, सोनाँ । खो-खो का खेल । बचना मत । नदी तभी मिलेगी, और पहुँचना ही है नौ रंगों की नदी तक कि तुम्हें डुबकी लगानी है वहाँ । तुम ही हो वो चुनी हुई अभिशप्त राजकुमारी । उस पवित्र जल में स्नान के सिवाय कहीं मुक्ति नहीं ।"
तुम्हारा सन्देश मेरे कानों से सरसराते हुए हृदय में उतरता और शुरू हो जाता खेल खो-खो का ।
एक सीधी पंक्ति में उल्टी दिशाओं की ओर बैठे खिलाड़ियों के आर-पार होती हुई मैं दौड़ शुरू करती हूँ। मैं सप्तऋषि के ऊपर से गुज़रती हुई और मेरी देह रुई के फाहे सी उड़ती हुई बादलों के बीच. पलट कर तुम्हें देखती, मुझे पकड़ने का स्वाँग करते हुए आते मेरे पीछे-पीछे. हमारी नज़रें टकरा जातीं, बिजलियाँ हचक के चमकतीं और धरती पर मूसलाधार पानी बरसता ।
हम हँसते जाते और बरसता जाता प्यार का पानी । बूँदे बनतीं, धरती से टकरातीं, टूटतीं, खो जातीं. हम आगे बढ़ते जाते । चारों ओर से बहे आते थे उल्का के छोटे-बड़े पिण्ड और हमें छू कर निकल जाते थे ।
सीधी पंक्ति में बैठे हुए तुम्हारे हमशक़्लों के आर-पार होती गुलाब की पत्ती-सी उड़ते हुए सप्तऋषि और हाइड्रस<ref>धरती से 127 प्रकाश वर्ष दूर एक तारा समूह</ref> को पार कर गई थी । कब पता था कि हमारी नज़रें टकराने से जो बिजलियाँ चमकी थीं, गिरेंगी वो मुझ पर ही । मैं खेल रही थी खेल खो-खो का कि धूल का गुबार उठने लगा । बड़ी लाल आँखों वाले तुम बवण्डर के बीच से चले आ रहे थे और मैं भाग रही थी बहुत तेज़ । तुम्हारे मुँह से निकल रहे थे नुकीले औज़ार और मेरी आत्मा से लहू रिस रहा था. तुमने मुझे जकड़ लिया था और अपने बड़े बड़े नाखूनों से नोच रहे थे । मैं हक्का-बक्का घूमती पीछे तुम्हें देखने को और तुम वहाँ से मुस्कुराते थे ।
कैसा मायाजाल ?
मैं चीख़ती जाती थी मेरी जान बख्श दो ।
तुम्हारे इस मायावी रूप से छिटक कर किसी तरह उल्टी दिशा में भागी थी। उन लाल डोरे वाली वहशी आँखों से बच कर कितनी रातें कितने दिन दौड़ती रही कुछ होश नहीं । जब होश आया तो देखती हूँ चाँद का मुकुट पहने बादलों की सेज पर लेटी हूँ । तुम ठीक मेरे सामने मुस्कुराते हुए. लिपट जाती हूँ । फफक कर रो पड़ती हूँ । तुम बालों में उंगलियाँ फिराते हो, दूर दक्षिण में तारे टूट कर गिरने लगते ।
कौन था वो ? तुम कौन हो ? हम कहाँ हैं इस वक़्त ? वक़्त क्या हुआ है ? दिन है कि रात है ? खो-खो का खेल ख़त्म हुआ या नहीं?
नाड़ी के साथ सौ सवाल धड़क उठे थे कि अचानक होश आया तन पर वस्त्र नहीं. हड़बड़ा कर उठी और नग्न देह ढँकने को बादल का एक टुकड़ा खींच लिया । कैसी निर्मम हँसी के साथ बादल के उस टुकड़े को तुमने फूँक मार कर उड़ा दिया । अपनी छोटी-छोटी हथेलियों से वक्ष ढाँपने की कोशिश करती बेबस सी मैं रोती जाती और तुम्हारी हँसी के साथ बादल गरजते थे.
"चाँद का मुकुट पहनाया तुम्हें. शर्त यही कि तन पर और कुछ नहीं ।"
मैं रो रही थी घुटनों पर सिर छुपाए ।
"मुझे सरे-आम निर्वस्त्र करते हो, शैतान ! नहीं जाना मुझे नदी तक. मुझे वापस जाना है. नहीं खेलना ये खेल मुझे ।"
" हाँ ! शैतान ही तो !
उधर जब हँस रही थी तुम सप्तऋषि के पास तब भी मैं ही था तुम्हारी आत्मा पर खिलने वाला गुलाब और यहाँ ज्येष्ठा, मूल,रेवती, अश्वनी, आश्लेषा, मघा<ref>ज्येष्ठा, मूल, रेवती,मघा,आश्लेषा,अश्वनी - हिन्दू मान्यता के अनुसार अशुभ नक्षत्र</ref> के बीच लहूलुहान पड़ी हो तब भी मैं ही हूँ तुम्हारी वजूद के चारों ओर फैला हुआ काँटों का बाड़ ।
कौन जा पाता है वहाँ तक ? कोई नहीं. तुम्हें ले जाऊँगा नौ रंगों वाली उस नदी तक और दिखाऊँगा अब तक अनछुए-अनदेखे रंग । मैं तुम्हें मुक्त करवाऊँगा उस श्राप से ।"
नीम बेहोशी सी तारी थी मुझ पर और आधे-अधूरे शब्द कानों पर गिरते थे । आँखों के आगे दिखता था खो-खो का खेल और तुम्हारी शक़्ल के नौ खिलाड़ी, पूर्व की ओर मुँह किए बैठे दीपक की लौ जैसे ऊँचे उठते तुम्हारे प्रेम के दूत और पश्चिम की ओर मुँह किए कीचड़ सने वासना से भरे शैतान ।
कैसा स्किट्ज़ोफ्रेनिक रूप था यह प्रेम का । कौन था प्रेम नाम का मदारी अपनी डुगडुगी की थाप पर नाच नचाता हुआ ।
दूर दिखती थी नदी एक, कानों में कल-कल बहती थी ।
याद है वो नौ सौ साल पुराना 'लवर्स ओक'<ref>जॉर्जिया में पाया गया नौ सौ वर्ष पुराना वृक्ष</ref> जिसके नीचे तुमने मेरा हाथ थामा था। नौ जन्मों से खो-खो खेल रहे हम नदी तक पहुँचने को । तुम गिराते, उठाते, दौड़ाते, फिर गिराते, फिर उठाते और फिर दौड़ाते ।
कितना दौडूँ ?
मेरे भीतर बहता है कुछ कलकल, भीग जाती हूँ । कोई नाव चलती है आँखों में, नाभि में खिल जाता है कमल, किसी प्रपात से छप्प-छप्प गिरती हूँ ।
खोने का खेल जारी है खो-खो...
किस नदी की ओर मुझे लिए जाते हो ? कितना दौड़ाते हो ? क्या पाने के लिए खो जाने का खेल रचाया ? कब की खो चुकी खुद को, दौड़ कैसी, कहाँ के लिए ?
रुकना ज़रा ! एक बार मुड़ कर देखना !
दौड़ नहीं सकती, बह रही हूँ कब से. झाँको मेरी शिराओं में, नौ रंगों वाली नदी हो गई हूँ कब से...