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स्कूल, बच्चे और मीनू / शोभनाथ शुक्ल

Kavita Kosh से
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स्कूल की
दीवाल पर चस्पा है।
हफ्ते भर का मीनू
ग्राम प्रधान से
स्कूल प्रधान तक
सभी को पता है
क्या-क्या बनना चाहिए
किस-किस दिन..........।
बच्चे भी रोज इसी
इंतजार में रहते हैं
सुबह-सुबह आकर
पढ़ते हैं/आज
मीनू में क्या-क्या है
बच्चे भी चखना चाहते हैं
हफ्ते भर के मीनू का
स्वाद अलग-अलग...............।

दोपहर को
स्कूल प्रधान की डपट में
गायब हो जाती है
चेतना बच्चों की.................
और थाली-कटोरी लेकर
बैठ जाते हैं
गरीब परिवारों के अधनंगे/भूखे बच्चे
बिना टाट-पट्टी के
फिर आ गिरता है
खिचड़ी का लोंदा
सामने थाली में
और हल्दी की महक में
खो जाता है
गडमड्ड हो जाता है
पूरा का पूरा मीनू............।
पीले चावल में
कंकड कम, कीड़े ज्यादा हैं
बच्चे चुप हैं
पर आँखों में
तैर रहा है पानी...............
और होठों में दबा है
प्रतिरोध का स्वर...............
बच्चो की सुगबुगाहट पा
प्रधान डपट लेता है
और/बच्चे चुपचाप
निगल जाते हैं चावल
जो न कच्चा होता है, न पक्का
गटक लेते हैं उसे
पानी के साथ.............
और पी जाते हैं मन की खीझ
और आँखो का पानी
एक साथ..............।
समने खड़ा प्रधान
उन्हें कसाई लगता है
उसके साथ
चपर-चपर बतियाता
स्कूल प्रधान
बकरे की गर्दन पर
गिरता बुगदा दिखता है
लाभ-हानि की बतकही में
कसाई और बुगदा का रिश्ता
और/मजबूत होता जाता है
कटते तो बच्चे ही हैं
बकरों की तरह...........।
स्कूलों का मिड डे मील
अब बच्चों के लिए
गले की हड्डी बन गया है
बच्चे इस हड्डी को
फेंकना चाहते हैं
कुत्तों की ओर.........देखना चाहते हैं
उनकी कुत्तई
और/आपसी लड़ाई का जोर...........।।