स्ट्रीट की लड़कियां / कल्पना सिंह-चिटनिस
वे चौराहें थीं,
जहाँ तक
सभी दिशाओं से
आने के मार्ग तो निर्धारित थे,
पर वे स्वयं कोई मार्ग या
गंतव्य नहीं थीं।
कोई राह चलता मुस्कुराता
उनका पता बताता,
तो वे जैसे
लड़कियों से सहसा पौध,
और फिर पौध से सहसा
वृक्षों में बदल जातीं,
तीव्रगंधा, पुष्पोंवाली,
जो सारा दिन देखती हैं
अपने दरीचों और मुंडेरों पर बीतता सूरज,
और जगमगाती हुई रोशनी से निकलकर
अपनी सीढ़ियों पर चढ़ती रात,
हर रात।
रात बीतती है
पर चुकती नहीं,
सूरज डूबता है
पर मरता नहीं,
बस हर सांझ
दुबक जाता है
वही कहीं,
उनके आसपास,
या किसी लड़की के ज़ाफ़रानी दुपट्टे के पीछे
उसके धड़कते सीने में,
फिर रात भर
तिलमिलाता है।
रात थकती है,
सूरज तिलमिलाता है
और लड़कियां...?
किसी थके हुए एक लम्हे में देखती हैं
अपने थकते पॉँव,
और तब,
उनकी आँखों में
उतर आता है
उनका शहर,
अथवा गांव,
और अपने घर की
एक धुंधली सी याद।
आँगन में बैठ कर मां ने कभी
उनकी खनकती हुई हंसी सी
एक पायल पहनाई थी उनके पावों में,
याद आता है उन्हें,
उस पायल के नन्हें नूपुर
अब कितने विकसित हो गए हैं,
क्या पता होगा माँ को?
उसकी करुण आँखे तो
अब भी ताकती होंगी द्वार,
नन्हें-नन्हें नूपुर बंधे
नन्हें पावों की प्रतीक्षा में...
पर उससे आगे भला
कब, कहाँ सोच पाईं लड़कियां?
जब भी सोचना चाहा -
हर बार, एक बहस उनके इर्द-गिर्द
तेज होती गई।
हर बार, एक अधूरी रह जानी वाली बहस!
अपने औचित्य और अनौचित्य के हिंडोले पर
एक बार फिर जाकर झूलने लगती हैं लड़कियां,
तेज, और तेज, खूब तेज,
कहकहों के आतिश में
झुलसती चली जाती हैं लड़कियां,
हर रात खुद पर से
एक नया पतझड़
गुजार देने के लिए!
ईश्वर जाने, कि हर सुबह
पतझड़ के मारे उनके पत्तों की जगह
फिर कोई नया पत्ता कैसे उग आता है,
कि उनका हर जख़्म,
बगैर किसी मरहम ही
कैसे भर जाता है?
अभिशाप होती हैं ये लड़कियां
या वरदान होती हैं ये लड़कियां?
होती हैं पुतलियां,
या सामान होती हैं ये लड़कियां?
चीखती हैं फिर क्यों हमारी तरह ये,
कोई भी तो नहीं कहता,
इंसान होती हैं ये लड़कियां?