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स्तेंका राज़िन का मृत्युदण्ड / येव्गेनी येव्तुशेंको / मदन केशरी

Kavita Kosh से
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सफ़ेद चारदीवारी से घिरे मसक्वा शहर में,
हाथ में पोस्ते के दाने वाला पाव लिए एक चोर दौड़ रहा है,
उसे डर नहीं आज कि भीड़ पकड़कर मार डालेगी उसे ।
पाव रोटी खाने का भी उसके पास वक़्त नहीं…

स्तेंका राज़िन को वे ला रहे हैं !

ज़ार एक छोटी बोतल से मलवाजिया पीने में मग्न है,
स्वीडनी आईने के सामने वह अपने चेहरे के मुँहासे को दबाता है
और खिसकाता है उँगली में पन्ने की राजकीय मुद्रिका –
चौक में स्तेंका राज़िन को वे ला रहे हैं!
बड़े पीपे के पीछे लुढ़कते छोटे पीपे की तरह
अपने सफ़ेद दाँतों के बीच टॉफ़ी का टुकड़ा चबाते,
बयार का एक नन्हा बच्चा अपनी माँ के पीछे दौड़ता आ रहा ।

आज छुट्टी का दिन है ! स्तेंका राज़िन को वे ला रहे हैं !

मटर के सेवन से वात-पीड़ित एक व्यापारी धकियाते आगे निकलना चाहता है
भीड़ में आगे-आगे उछल रहे हैं दो मसख़रे
शराब के नशे में धुत लफंगे कुछ बड़बड़ाते चल रहे…

स्तेंका राज़िन को वे ला रहे हैं !

खुजली से भरे बूढ़े, जिनकी पीठ झुक रही है और लटक रही गर्दन की चमड़ी,
रख रहे हैं डगमगाते पाँव, मन-ही-मन कुछ बुदबुदाते हुए,
उनींदी अवस्था में बिस्तरों से अचानक निकलकर आई
कुछ बेशर्म लड़कियाँ भी आ रही हैं उचकते हुए,
मले हुए खीरे के बारीक टुकड़े चिपके हैं उनके चेहरों पर,
एक उत्तेजना है उनकी जाँघों के बीच…

स्तेंका राज़िन को वे ला रहे हैं !

और राजकीय सुरक्षा प्रहरियों की पत्नियों की चीख़
और घृणा में बरसते थूक के बीच
एक जर्जर, डगमगाती गाड़ी पर वह आ रहा है,
हवा में उड़ रही है उसकी सफ़ेद कमीज़.

वह चुप है, भीड़ के थूक में लिथड़ा हुआ,
वह चेहरा पोंछता नहीं है, केवल हँसता है एक तिरछी हँसी,
अपने-आप पर मुस्कराता है : ‘‘स्तेंका, स्तेंका राज़िन, तुम उस शाख की तरह हो
जिसने अपनी पत्तियाँ खो दी है ।

कितना बेतरह तुम चाहते थे मसक्वा में आना !
और अब तुम मसक्वा में आ रहे हो किस तरह…
ठीक है, मुझ पर थूको, सब थूको !
आखिर यह मुफ़्त का तमाशा है ।

भलेमानुस, तुम उन पर थूकते हो
जो तुम्हारे हित के लिए सोचते हैं.
मैंने तुम्हारे हित की कितनी चिन्ता की –
फ़ारस के समुद्र तट से गुज़रते
मुझे क्या पता था ? किसी की नज़र,
एक तलवार, एक पाल, और एक गद्दा…
मैं कोई विद्वान नहीं था…
क्या शायद यही कारण था कि मेरी यह गति हुई ?

ज़ार के लेखपाल ने मेरे जबड़ों पर पूरी ताक़त से चोट की,
बार-बार, हर बार पहले से अधिक आवेश में:
हर वार के साथ गूँजते शब्द –‘तुमने लोगों के विरूद्ध काम किया ! किया कि नहीं ?
इसका नतीजा तुम्हें पता चलेगा !’
मैं अपनी बात पर टिका रहा, बिना आँखें झुकाए ।

मुँह से ख़ून के साथ फूटा मेरा उत्तर :
‘बयारों के विरूद्ध, अवश्य ! लोगों के विरूद्ध, नहीं !’
मुझे ग्लानि नहीं, न कोई अपराध का भाव,
मैंने अपनी नियति स्वयं चुनी थी ।

आपके सामने, मेरे भाइयो, मैं पश्चाताप करता हूँ,
मगर उस अपराध के लिए नहीं, जो ज़ार का लेखापाल मुझसे सुनना चाहता है ।
सब मेरी सोच का दोष है,
और इसके लिए मैं स्वयं को सज़ा दे रहा हूँ :
मैंने अपना काम अधूरा किया,
जबकि मुझे उसे अन्तिम मकाम तक पहुँचाना चाहिए था ।

नहीं, मेरा अपराध यह नहीं, मेरे भाइयो,
कि मैंने बयारों को टॉवर से लटका फाँसी दी ।
मेरी नज़र में मेरा अपराध यह है
कि मैंने बहुत कम बयारों का अन्त किया ।
मेरा अपराध यह है कि खलता से भरी इस दुनिया में
मैं एक भला मूर्ख था,
मेरा अपराध यह है कि दासता का शत्रु होने के बावजूद
मैं खु़द ही एक दास की तरह था,
मेरा अपराध यह है कि एक कल्याणकारी ज़ार के लिए
मैंने लड़ने को सोचा ।

कोई ज़ार कल्याणकारी नहीं होता. ऐसी अपेक्षा मूर्खता है…
स्तेंका, तुम निरर्थक मर रहे हो !’’

घड़ियालों की गूँजती आवाज़ मसक्वा की हवा में तिरने लगी है ।
वे स्तेंका को वधस्थल पर ले जा रहे हैं ।
स्तेंका के आगे डग भरते जल्लाद के चमड़े का एप्रन
तेज़ हवा में फड़फड़ाते बज रहा है,
भीड़ के ऊपर लहराते उसके हाथ में
एक नीली कुल्हाड़ी है, वोल्गा नदी की तरह नीली,
तीक्ष्ण धार पानी की तरह चमकती ।

भीड़ में उचकते थूथनों, भद्दे थोबड़ों
और कर अधिकारियों, मुद्रा विनियम के दलालों और आढ़तियों के
खाए-अघाए अश्लील चेहरों की तरफ़ स्तेंका एक दृष्टि डालता है –
अत्यन्त क्षणिक दृष्टि, जैसे धुन्ध से गुज़रती किरण की रेख ।
उन चेहरों में, और उनकी आँखों में दूरी थी, एक विस्तृत पृथकता ।

जिस राह पर वह चला, उसके लिए यह क्षण उसे स्वीकार्य है –
वधस्थल की काठी पर सिर रखना, आँखों में बिना नमी के,
जब तमाशाइयों के भयावह रूप से उत्सुक चेहरे
एक चेहराविहीन भीड़ से झाँक रहे हों ।
और बिना किसी उद्विग्नता के (ज़ाहिर है, वह अकारण नहीं जीवित रहा)
स्तेंका ने खाँचे में गर्दन डाली,
अपनी ठुड्ढी को लकड़ी के ठीहे पर स्थिर किया,
और सर के पीछे चिल्लाकर आदेश दिया – “कुल्हाड़े का वार…!’’

गर्म रक्त में लिथड़ा सिर गिरकर लुढ़कने लगा ।
वधमंच से दण्डाधीश का स्वर उठा – “यह मृत्युदण्ड अतिआवश्यक था !’’

देशभक्त नागरिकों, आप लोग चुप क्यों खड़े हैं ? ख़ुशियाँ नहीं मना रहे, क्यों ?
टोपियाँ हवा में उछालें और झूमें !
लेकिन रेड स्कवेयर में सन्नाटा है,
कुल्हाड़े हवा में नहीं लहरा रहे,
चुप हो गए हैं मसख़रे तक ।

इस मृत्यु-सी निस्तब्धता में सिर्फ़ कुछ पिस्सुओं में हरकत है,
जो किसानों के कोटों से निकल घुस रहे हैं औरतों के चोगों में ।
शायद कुछ मोटी बुद्धिवालों की समझ में आई है कोई बात,
वे अचानक अपनी टोपियाँ जोश में उछालने लगे हैं ।

घण्टे ने तीन बार कर्कश ध्वनि की है,
लेकिन ख़ून में सने बालों के लटों में लिपटा सिर
अभी भी थरथरा रहा था, अभी भी बाक़ी था रक्त प्रवाह का वेग ।
रक्त से भीगे वधस्थल के सामने
जहाँ कुछ निम्नवर्गीय दर्शकों का समूह खड़ा था,
स्तेंका की खुली आँखें सीधी देख रही थीं, जैसे कोई अज्ञात सन्देश देतीं…

काँपता हुआ पुजारी घबराहट में उठा और भागा सिरमुण्ड की ओर,
कोशिश की स्तेंका की पुतलियों को बन्द करने की ।
मगर जमकर कठोर हो गई पुतलियाँ खुली रहीं, उठी रहीं पलकें.
उन तीखी, घूरती आँखों की भयावहता के कारण
सरक कर गिरने लगा ज़ार का मनामाख का टोप,
और अपनी जीत के उस क्षण में, एक भीषण स्वर के साथ
स्तेंका का सिर ज़ार की अशक्तता पर हँसने लगा था ।

सन्दर्भ :

(1) स्तेंका तिमाफ़ेयविच राज़िन (1630-1671): कज़ाक प्रजाति का एक इतिहास पुरुष. जिसने ज़ार के आधिपत्य तथा कुलीन वर्ग के वर्चस्व को चुनौती दी; दास प्रथा का विरोधी, स्तेन्का ने शोषित और वंचित वर्गों की समानता के लिए एक वृहत सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व किया और रूस के लगभग सम्पूर्ण दक्षिणी क्षेत्र को ज़ार के शासन से मुक्त करा अपने प्रभुत्व में लिया; 1671 में उसे बन्दी बना, 6 जून को सार्वजनिक रूप से मसक्वा में शिरोच्छेद कर मृत्युदण्ड दिया गया ।

(2) मलवाजिया (Malvasia): इटली में पैदा होने वाले बढ़िया अँगूर की एक क़िस्म और उससे बनी तेज़, मीठी शराब, जो रूस और स्पेन आदि देशों में बहुत लोकप्रिय है ।

(3) बयार: रूसी राजतन्त्र के काल में उच्चतम सैन्य तथा प्रशासकीय पदों पर आसीन एक अतिप्रभावशाली कुलीन वर्ग; तत्कालीन रूस के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में, बयार होने का अर्थ था विशाल भूखण्ड, अनगिनत दासों और विशिष्ट राज्याधिकारों का स्वामी होना ।
(4) मनामाख टोप: ज़ार व्लदीमिर मनामाख (ई.1113-1125) के नाम से प्रसिद्ध, स्वर्ण-निर्मित, बहुमूल्य रत्नों से अलंकृत रूस के शासक का परम्परागत राजकीय मुकुट ।

अनुवादक की टिप्पणी :
कविता एक से अधिक अंग्रेज़ी अनुवादों पर आधारित है, ताकि कविता की अंतर-वस्तु अपने मूल अर्थ और संदर्भ के अधिक से अधिक समीप रहे. दो भाषाओं की अलग चरित्र-विशिष्टता के कारण कहीं-कहीं काव्य-अभिव्यक्ति बदल दी गई हैं.

अँग्रेज़ी से अनुवाद : मदन केशरी

लीजिए, अब यही कविता अँग्रेज़ी अनुवाद में पढ़िए

             Yevgeny Yevtushenko
       The Execution Of Stenka Razin

In Moscow, the white-walled capital,
a thief runs with a poppy-seed loaf down the street.
He is not afraid of being lynched today.
There isn’t time for loaves...
They are bringing Stenka Razin!
The tsar is milking a little bottle of malmsey,
before the Swedish mirror, he squeezes a pimple,
and tries on an emerald seal ring-
and into the square... They are bringing Stenka Razin!
Like a little barrel following a fat barrel
a baby boyar rolls along after his mother,
gnawing a bar of toffee with his baby teeth.
Today is a holiday! They are bringing Stenka Razin!
A merchant shoves his way in, flatulent with peas.
Two buffoons come rushing at a gallop.
Drunkard-rogues come mincing...
They are bringing Stenka Razin! !
Old men, scabs all over them, hardly alive,
thick cords round their necks,
mumbling something, dodder along...
They are bringing Stenka Razin!
And shameless girls also,
jumping up tipsy from their sleeping mats,
with cucumber smeared over their faces,
come trotting up- with an itch in their thighs...
They are bringing Stenka Razin!
And with screams from wives of the Royal Guard*
amid spitting from all sides
on a ramshackle cart
he comes sailing in a white shirt.
He is silent, all covered with the spit of the mob,
he does not wipe it away, only grins wryly,
smiles at himself: 'Stenka, Stenka, you are like a branch
that has lost its leaves.
How you wanted to enter Moscow!
And here you are entering Moscow now...
All right then, spit! Spit! Spit!
after all, it’s a free show.
Good people, you always spit
at those who wish you well.
I so much wished you well
on the shores of Persia,
and then again when flying
down the Volga on a boat!
What had I known? Somebody’s eyes,
a saber, a sail, and the saddle...
I wasn’t much of a scholar...
Perhaps this was what let me down?
The tsar’s scribe beat me deliberately across the teeth,
repeating, fervently:
‘Decided to go against the people, did you?
You’ll find out about against! ’
I held my own, without lowering my eyes.
I spat my answer with my blood:
‘Against the boyars- true.
Against the people - no! ’
I do not renounce myself,
I have chosen my own fate myself.
Before you, the people, I repent,
but not for what the tsar’s scribe wanted.
My head is to blame.
I can see, sentencing myself:
I was halfway against things,
when I ought to have gone to the very end.
No, it is not in this I have sinned, my people,
for hanging boyars from the towers.
I have sinned in my own eyes in this,
that I hanged too few of them.
I have sinned in this, that in a world of evil
I was a good idiot.
I sinned in this, that being an enemy of serfdom
I was something of a serf myself.
I sinned in this, that I thought of doing battle
for a good tsar.
There are no good tsars, fool...
Stenka, you are perishing for nothing! '
Bells boomed over Moscow.
They are leading Stenka to the place of execution.
In front of Stenka in the rising wind
the leather apron of the headsman is flapping,
and in his hands above the crowd
is a blue ax, blue as the Volga.
And streaming, silvery, along the blade
boats fly, boats like seagulls in the morning...
And over the snouts, pig faces, and ugly mugs
of tax collectors and money changers,
like light through the fog,
Stenka saw faces.
Distance and space was in those faces,
and in their eyes, morosely independent,
as if in smaller, secret Volgas
Stenka’s boats were sailing.
It’s worth bearing it all without a tear,
to be on the rack and wheel of execution,
if sooner or later
faces sprout threateningly
on the face of the faceless ones...
And calmly (obviously he hadn’t lived for nothing)
Stenka laid his head down on the block,
settled his chin in the chopped-out hollow
and with the back of his head gave the order:
'Strike, ax...'
The head started rolling, burning in its blood,
and hoarsely the head spoke: 'Not for nothing...'
And along the ax there were no longer ships-
but little streams, little streams...
Why, good folk, are you standing, not celebrating?
Caps into sky-and dance!
But the Red Square is frozen stiff,
the halberds are scarcely swaying.
Even the buffoons have fallen silent.
Amid the deadly silence
fleas jumped over
from peasants’ jackets onto women’s robes.
The square had understood something.
The square took off their caps,
and the bells struck three times seething with rage.
But heavy from its bloody forelock
the head was still rocking, alive.
From the blood-wet place of execution,
there, where the poor were,
the head threw looks about like anonymous letters...
Bustling, the poor trembling priest ran up,
wanting to close Stenka’s eyelids.
But straining, frightful as a beast,
the pupils pushed away his hand.
On the tsar’s head, chilled by those devilish eyes,
the Cap of Monomakh, began to tremble,
and, savagely, not hiding anything of his triumph,
Stenka’s head burst out laughing at the tsar!

1964
Translated by Tina Tupikina-Glaessner, Geoffrey Dutton, and Igor Mezhakoff-Koriakin

लीजिए, अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
              Евгения Евтушенко
            Казнь Стеньки Разина

Как во стольной Москве белокаменной
вор по улице бежит с булкой маковой.
Не страшит его сегодня самосуд.
Не до булок...
       Стеньку Разина везут!
Царь бутылочку мальвазии выдаивает,
перед зеркалом свейским
              прыщ выдавливает,
Примеряет новый перстень-изумруд -
и на площадь...
           Стеньку Разина везут!
Как за бочкой бокастой
                     бочоночек,
за боярыней катит боярчоночек.
Леденец зубенки весело грызут.
Нынче праздник!
       Стеньку Разина везут!
Прет купец,
       треща с гороха.
Мчатся вскачь два скомороха.
Семенит ярыжка-плут...
Стеньку Разина везут!!
В струпьях все,
       едва живые
старцы с вервием на вые,
что-то шамкая,
            ползут...
Стеньку Разина везут!
И срамные девки тоже,
под хмельком вскочив с рогожи,
огурцом намазав рожи,
шпарят рысью -
       в ляжках зуд...
Стеньку Разина везут!
И под визг стрелецких жен,
под плевки со всех сторон
на расхристанной телеге
плыл
   в рубахе белой
                 он.
Он молчал,
       не утирался,
весь оплеванный толпой,
только горько усмехался,
усмехался над собой:
"Стенька, Стенька,
       ты как ветка,
потерявшая листву.
Как в Москву хотел ты въехать!
Вот и въехал ты в Москву...
Ладно,
    плюйте,
        плюйте,
            плюйте -
все же радость задарма.
Вы всегда плюете,
              люди,
в тех,
    кто хочет вам добра.
А добра мне так хотелось
на персидских берегах
и тогда,
    когда летелось
вдоль по Волге на стругах!
Что я ведал?
        Чьи-то очи,
саблю,
    парус
        да седло...
Я был в грамоте не очень...
Может, это подвело?
Дьяк мне бил с оттяжкой в зубы,
приговаривал,
           ретив:
"Супротив народа вздумал!
Будешь знать, как супротив!"
Я держался,
    глаз не прятал.
Кровью харкал я в ответ:
"Супротив боярства -
                правда.
Супротив народа -
                нет".
От себя не отрекаюсь,
выбрав сам себе удел.
Перед вами,
    люди, каюсь,
но не в том,
    что дьяк хотел.
Голова моя повинна.
Вижу,
    сам себя казня:
я был против -
        половинно,
надо было -
        до конца.
Нет,
    не тем я, люди, грешен,
что бояр на башнях вешал.
Грешен я в глазах моих
тем, что мало вешал их.
Грешен тем,
    что в мире злобства
был я добрый остолоп.
Грешен тем,
    что, враг холопства,
сам я малость был холоп.
Грешен тем,
    что драться думал
за хорошего царя.
Нет царей хороших,
               дурень...
Стенька,
    гибнешь ты зазря!"
Над Москвой колокола гудут.
К месту Лобному
        Стеньку ведут.
Перед Стенькой,
        на ветру полоща,
бьется кожаный передник палача,
а в руках у палача
            над толпой
голубой топор,
    как Волга, голубой.
И плывут, серебрясь,
                по топору
струги,
    струги,
        будто чайки поутру...
И сквозь рыла,
            ряшки,
                хари
целовальников,
            менял,
словно блики среди хмари,
Стенька
    ЛИЦА
        увидал.
Были в ЛИЦАХ даль и высь,
а в глазах,
    угрюмо-вольных,
словно в малых тайных Волгах,
струги Стенькины неслись.
Стоит все терпеть бесслезно,
быть на дыбе,
        колесе,
если рано или поздно
прорастают
        ЛИЦА
            грозно
у безликих на лице...
И спокойно
    (не зазря он, видно, жил)
Стенька голову на плаху положил,
подбородок в край изрубленный упер
и затылком приказал:
        "Давай, топор..."
Покатилась голова,
        в крови горя,
прохрипела голова:
            "Не зазря..."
И уже по топору не струги -
струйки,
    струйки...
Что, народ, стоишь, не празднуя?
Шапки в небо - и пляши!
Но застыла площадь Красная,
чуть колыша бердыши.
Стихли даже скоморохи.
Среди мертвой тишины
перескакивали блохи
с армяков
    на шушуны.
Площадь что-то поняла,
площадь шапки сняла,
и ударили три раза,
клокоча,
    колокола.
А от крови и чуба тяжела,
голова еще ворочалась,
                   жила.
С места Лобного подмоклого
туда,
    где голытьба,
взгляды
    письмами подметными
швыряла голова...
Суетясь,
    дрожащий попик подлетел,
веки Стенькины закрыть он хотел.
Но, напружившись,
    по-зверьи страшны,
оттолкнули его руку зрачки.
На царе
    от этих чертовых глаз
зябко
    шапка Мономаха затряслась,
и, жестоко,
    не скрывая торжества,
над царем
    захохотала
            голова!..

1964