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स्त्रियाँ लाती थीं मीलों दूर से भरकर घड़े / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
खड़े थे कई बच्चे
तितर-बितर।
नहीं था पानी
बिजली नहीं थी।
कीचड़ था।
आंधी चलती थी।
बूंदें गिरती थीं।
रोती थीं कविता
की दुनिया में-
रात की नदियाँ।
घोंसले बनते थे
उजड़ते थे-
स्त्रियाँ लाती थीं
मीलों दूर से
भरकर घड़े।
बच्चियाँ मांजती थीं
सुबह से रात तक
बर्तन
दूसरों के।
आती-जाती थीं ट्रेनें।
नीम और पीपल थे-
कहानियाँ थीं
उनकी हज़ारों-हज़ार।
कोहराम थे।
खोए जाते थे
माता-पिता।
बैठे थे
गुमशुदा बच्चे,
चुपचाप।