भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्त्री-पुरुष / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन दिनों के बीच
हमेशा एक सुगंध फैली रहती थी
झगड़ा तब हुआ
जब उन दोनों के बीच
एक पेड़ उग आया
वह कहती-बबूल का पेड़ है यह
वह कहता-यह चिनार है
सारी बहस के केंद्र में
यही तय करना था
कि पेड़ चिनार है या बबूल।
इसी बहस में सुगंध कहीं दूर
अंदर फैल कंगूरों पर टँग गई
और बहस यह साबित करने के लिए होती रही
कि पेड़ चिनार है या बबूल।
दोनों पेड़ों की शख़्सियत में
इतना फ़र्क़
फिर भी दोनों तुले थे
साबित करने को कि पेड़ तो वही है
जो उनकी पुतलियों में उतरता है
हारकर पुरुष ने कहा
हो सकता है कि बबूल भी कहीं समाया हो
चिनार की शिराओं में।
उसने अपनी पुतलियों में उतरे
पेड़ की शिराओं में बबूल ढूँढ़ना शुरू किया
उसे दिखा कि
चिनार की शिराओं में।
कहीं उलझी हैं बबूल की शिराएँ
उसने स्वीकार कर लिया
हाँ शायद कहीं बबूल भी
समाया है चिनार की पसलियों के नीचे
नहीं बबूल ही है वह और शायद कहीं चिनार समा गया है
बबूल की पसलियों में
सारी बहस यहीं आकर स्थगित हो जाती
और चिनार बार-बार
अपनी शख़्सियत खोजता
बबूल से उलझता रहता
बहस कहीं भी खत्म नहीं होती
और कंगूरों पर टँगी सुगंध लौटने की प्रतीक्षा में
अभी वहीं टँगी है
शायद! सूखने का इंतज़ार करती हुई।