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स्त्री तुम बुद्ध नहीं बनीं / लता अग्रवाल

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स्त्री!
तुमने जन्म दिया
बुद्ध को
मगर तुम
बुद्ध नहीं बन पाई
अनेक दायित्वों से
जूझती रही तमाम उम्र
छोड़कर चली क्यों नहीं गई
पुत्र और पति को
सोता छोड़कर
ब्रह्म ज्ञान की तलाश में
खोजने मुक्ति का मार्ग
क्योंकि तुम जानती थीं
मुक्ति मिले न मिले
एक बार त्याग देने से दहलीज
भविष्य में हर एक रास्ता
बन्द हो जाएगा
इस द्वार आने का
आधी रात को यूँ
खामोशी से जाना तुम्हारा
समाज को खल जाएगा
नहीं होगी प्रशंसा
न कहलाओगी पूज्य
मिलेगी उल्टे भर्त्सना
कोई नहीं सराहेगा
तुम्हारे इस ज्ञान मार्ग को
चरित्र की उजली चादर तुम्हारी
दागदार कर दी जाती
कल्पित, कलंकित रिश्तों की
कीचड़ तुम पर
उछाल दी जाएगी
बुद्ध तो नहीं हाँ बुध्दू की
पदवी अवश्य पाओगी
इसलिए युग-युग से
स्त्री तुमने सीता बनना ही
स्वीकारा
कभी बुद्ध नहीं बन पाई।