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स्त्री होना / लता अग्रवाल

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आसान नहीं है
स्त्री होना
बनने स्त्री
नदी होना होता है
चट्टानों का जिगर चीरकर
बचाने अस्तित्व अपना
बहना होता है।

कई मोड़ो से होकर
स्रोतों को अपने
खुद में समेटते हुए
कभी गुहर सुरंगों से गुजरना पड़ता है
कभी ताल तलैया में
करनी होती है गुजर
पाने लक्ष्य को अपने
करनी होती है तपस्या लम्बी
कभी पथरीली राहों पर,
कभी अतल गहराइयों में,

अस्तित्व को अपने विभाजित कर
अलग-अलग पहचानों से
बहना होता है
ठीक वैसे ही
जिंदा रहती है जैसे स्त्री
कभी किसी की
बेटी, बहन, पत्नी माँ बनकर
खोना होता है
स्वतंत्र अस्तित्व अपना
न होकर भी होना, होकर भी न होना
जताना पड़ता है।

स्वीकारनी होती है
वायुवेग की सत्ता
तब कहीं ज़िंदा रहती है नदी
कोई नहीं देखता उसके संघर्षों को
सब यही समझते हैं
हिम के पिघलने से ही है
अस्तित्व नदी का

बहानी होती हैं गंध
धोकर पाप पतितों के
हरना होता है उनका अधर्म
स्त्री पचाकर दुख अपने
हल्के करती है अपनों के दुख
मानकर आराध्य
समन्दर को
नदी कर देती है समर्पण

जानते हैं सभी
हम नदियों से है
अस्तित्व समंदर का
मगर नज़र नहीं आता किसी को
समर्पण नदियों का
सभी को दिखती है विराटता
समंदर की।

किसे है परवाह
सिकुड़ती धाराओं की
कितना है शेष जल भीतर उसके
वह भी चाहती है क्षति पूर्ति
बेपवाह सब
भर लेना चाहते हैं
अंजुली अपनी
इतना ही वास्ता है
स्त्री और नदी से सबका।