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स्त्री – चार / राकेश रेणु
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वे जो चली जा रही हैं क़तारबद्ध,
गुनगुनाती, अण्डे उठाए चीटियाँ
स्त्रियाँ हैं ।
वे जो निरन्तर बैठी हैं
ऊष्मा सहेजती डिम्ब की
चिड़ियाँ, स्त्रियाँ हैं ।
जो बाँट रही हैं चुग्गा
भूख और थकान से बेपरवाह
स्त्रियाँ हैं ।
जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख
और भर रही हैं जीवन
चाटकर नवजात का तन
स्त्रियाँ हैं ।
जो उठाए ले जा रही हैं
एक-एक को
पालना बनाए मुँह को
स्त्रियाँ हैं ।
स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं
प्रेम में निमग्न हैं
एक हाथ से थामे दलन का पहिया
दूसरे से सिरज रही दुनिया ।