भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्त्री - रू-ब-रू / सुलोचना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लड़की, नारी, स्त्री
इन नामों से जानी जाती है
कई उपाधियाँ भी हैं
बेटी, पत्नी, माँ
अनेक रूपों मे नज़र आती है
पहले घर की रौशनी कहा
तो आँखो के नीचे काला स्याह क्यों ?

निर्भया, दामिनी, वीरा भी कहा
पर तब जब कुछ लोगो ने अपनी
पाशविकता का प्रमाण भी दिया
कुछ ने तो परी कहा
परियो से पंख भी दे डाले
जब उनके उड़ने की बारी आई
वही पंख किसी ने काट डाले
ऐसे समाज से आज भी
करती वो निर्वाह क्यों?

लड़की का पिता अपना
सबसे मूल्यवान धन दान कर
कर जोड़े खड़ा है
उधर लड़के की माँ को
लड़के की माँ होने का
झूठा नाज़ बड़ा है

झूठा इसलिए कि
उसकी संतान के लिंग निर्धारण में
उसका कोई योगदान नहीं है
तो क्या लड़की के पिता का
कोई स्वाभिमान नहीं है?

पिता का आँगन छोड़कर
नया संसार बसाया है
माँ के आँचल की छाँव कहाँ
"माँ जैसी" ने भी रुलाया है
रुलाने का कारण?

आज उसके बेटे ने
किसी दूसरी औरत को
प्यार से बुलाया है
आज वो इक माँ है
उस पीड़ा की गवाह है
जो उसकी माँ ने कभी
झूठी मुस्कान से दबाया था

बेटी के पैदा होने पर
कब किसने गीत गया था
पति के चले जाने के बाद
माथे की लाली मिटा दी लोगों ने
वो लाली जो उसके मुख का गौरव था
उसे कुलटा, मनहूस कहा
क्या सिर्फ़ पति ही
उसके जीवन का एकमात्र सौरभ था

शीघ्र ही वो दिवस भी आएगा
जब हरियाणा और राजस्थान की तरह
सारे विश्व से विलुप्त हो जाएगी ये "प्रजाति"
फिर राजा यज्ञ करवाएँगे
पुत्री रत्न पाने हेतु
राजकुमारियाँ सोने के पलनों मे पलेंगी
स्वयंवर रचाएँगी,
अपने सपनों के राजकुमार से
फिर द्रौपदी के पाँच पति होने पर
कोई सवाल ना कर सकेगा
उसके चरित्र पर कोई
टिप्पणी नही होगी
नारी को तब कोई भी
"वस्तु" नही कहेगा
संवेदनशील इस चाह को
"तथास्तु" ही कहेगा।