भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्त्री / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
हवा
चल
रही
है
बुहार रही है
शब्दों के
इर्द-गिर्द की रेत
हर कोई
पुकार
रहा है
ईश्वर !
मैं खुद को
भीतर से
निकाल रही हूँ
बाहर
अपने ही
हाथों से ।
मैं
वो जगह हूँ
जहाँ
मनुष्य
कम हैं
ईश्वर
ज़्यादा ।